SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 12. असद्व्यय परित्याग: जैसे मिल्कियत बनाने के लिए कमाना जरूरी है वैसे ही फिजूल खर्च का त्याग भी अनिवार्य है। आज का मानव अगर अपने स्वैच्छिक भोगादि वृत्तियों पर काबू रख, उन फिजूल खर्चों की सेविंग (बचत) करे तो कितनों के घर बस जाय, दारिद्र्य का निर्मूलीकरण भी अधिकांश हो जाय। 13. धन का सद्व्यय: पुण्य से प्राप्त संपत्ति का सही मार्ग पर सदुपयोग करने से नये पुण्य का बंध होता है। जो इस भव एवं परभव दोनो में लाभकारी है। सात क्षेत्र-जिन बिंब,जिनागम,जिन चैत्य, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका मे धन का विनियोग वह सद्व्यय है। 14. सफलारंभ करे: गंभीर कार्यों मे सफलता की संभावना से ही प्रवृत्त होना चाहिए। जहाँ परिणाम मे शून्यता या मात्र श्रम ही लगे वैसे व्यर्थ कार्यों मे पैर नही रखें। 15. प्रमाद का वर्जन: उत्तराध्ययन सूत्र में पांच प्रकार के प्रमाद बताये गये है 1) कषाय 2) विषय 3) व्यसन 4) निद्रा 5) विकथा । इन पांचो प्रमादों से संपूर्ण सांसारिक दुख की परंपराए चलती है। अत: इन प्रमाद स्थानो से खूब खूब बचकर रहना चाहिए। 16. लोकाचार-अनुवृति: अपनी कुलपरंपरा में चले आ रहे रीति नियमों का उल्लंघन न करें। जैसे कि मांस, मदिरा, जुगार, शिकार, आदि पर संपूर्ण प्रतिबंधन यह अपनी कुल मर्यादा है। इसकी सुरक्षा में ही अपनी सुरक्षा है। इस लोकाचार की उपेक्षा में अंत में हमारी ही उपेक्षा है। 17. औचित्य पालन=धर्म का प्राण औचित्य है। जिस समय जो उचित हो वहाँ उस कार्य की प्रधानता रखनी चाहिये । गुरू भगवंत घर में पधारे और हम टी.वी, न्यूजपेपर में मशगूल रहते हुए उनका अभ्युत्थान, विनय न करे तो वह अनौचित्य है। ऐसे अवसर पर अपनी प्रवृत्ति गौण करके उनके सामने जाना, विदाई देने जाना आदि औचित्य है। 18. मरण काल में भी निंदित प्रवृत्ति नही=1) चोरी, 2) जुगार, 3) मांसाहार, 4) शिकार, 5) परस्त्रीगमन, 6) वैश्यागमन, 7) मदिरापान । ये 7 महापाप प्राण आकंठ हो तो भी सज्जनों को उनका सेवन नहीं करना चाहिये। उपरोक्त 18 सदाचार के सद्गुणों से हम हमारे जीवन को शणगारे एवं एक आदर्श रूप जीवन बनाएँ। N 23॥ 164 C0 BISEONEESERTIABAR So टेकणशडावर्त मन्यावर्त शङ्कावर्त नवपदावर्त ओमकारावर्त हाकारावर्त श्रीकारावर्त सिद्धावर्त (93
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy