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धर्मास्तिकायादि का स्वरूप :
(1) धर्मास्तिकाय : गुण : गति सहायता।
जीव और पुद्गल को हलन चलनादि ( करने में जो सहायता करता है। उदाहरणार्थ : मछली की जल में तैरने की शक्ति है फिर भी तैरने की क्रिया में पानी की आवश्यकता रहती है।
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(2) अधर्मास्तिकाय : गुण : स्थिति सहायता।
जीव और पुद्गल को स्थिर रहने में जो सहायक हो। उदाहरणार्थ : धूप से श्रमित हुए पथिक को विश्राम के लिए वृक्ष की छाया।
(3) आकाशास्तिकाय :
गुण : अवगाहन। सभी द्रव्यों को जो अवकाश (जगह) देता है। उदाहरणार्थ : दूध में शक्कर।
(4) पुद्गलास्तिकाय :
गुण: पूरण, गलन स्वभाव।
सड़न (सड़ना), पड़न (पड़ना), विध्वंसन (नाश होना) जिनका स्वभाव है और वर्ण (रूप) गंध, परस और स्पर्श जिसमें हैं।
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