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________________ (2) स्त्री वेद : जिसके उदय से पुरुष संसर्ग की तीव्रच्छा हो। (3) नपुंसक वेद : स्त्री-पुरुष उभय के साथ संसर्ग करने की तीव्र लालसा पैदा होना। (4) अंतराय कर्म इसके कुल 5 भेद हैं : (1)दानांतराय, (2) लाभांतराय, (3) भोगांतराय, (4)उपभोगांतराय, (5) वीर्यांतराय उपरोक्त कर्म प्राय: क्रमश: दान प्रदान करने में, लाभ प्राप्ति में, एक ही बार भोग्य ऐसे अन्नादि के भोग में एवं बारंबार भोग्य वस्त्रालंकारादि के उपभोग में, आत्म वीर्य प्रकट करने में बाधा रूप बनता है। ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों में से उक्त चार घाति कर्म है और चार अघाति कर्म निम्न प्रकार से है। (5) वेदनीय कर्म इसके दो भेद है शाता वेदनीय : जिसका उदय होने से आरोग्य, सुख-संपदा, विषय भोगादि के चरम सुख का अनुभव होता है। ___अशातावेदनीय : जिसका उदय होने से नानाविध कष्ट, दुःख, पीड़ा और वेदना का अनुभव होता है। (6) आयुष्य कर्म इसके कुल चार भेद है :- (1) नरकायु (2) तिर्यंचायु (3) मनुष्यायु (4) देवायु । नरकादि भव में जीव को उतने काल तक बांधकर रखनेवाला, उस भव संबंधित शरीर में जीव को गोंद के समान चिपकाकर रखने वाला कर्म ही आयुष्य कर्म है। (7) गोत्र कर्म इसके दो भेद है : (1) उच्च गोत्र: जिसका उदय होने से ऐश्वर्य, सत्कार, मान-सन्मानादि के आधार स्वरूप उत्तम कुल, जाति अथवा गोत्र की प्राप्ति होती है। (2) नीच गोत्र: अधम, निम्न, हीन-दीन और दलित जाति अथवा कुल की प्राप्ति होना । (8) नाम कर्म इसके कुल 103 भेद - प्रभेद है : (A) 75 पिंड प्रकृति, (B) 8 प्रत्येक प्रकृति, (C)10 सदशक, (D) 10 स्थावर दशक (A) पिंड प्रकृति : __ भेद - प्रभेद समूहवाली 75 प्रकृतिया, जो निम्नांकित प्रकार में विभाजित है : I. गति - 4, II.जाति - 5, III.शरीर - 5, IV.अंगोपांग - 3, v.बंधन - 15, (75
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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