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________________ 3. कभी चोरी नही करना। दूसरों के पास चोरी करानी नहीं जो चोरी करते हो उन्हें मनसे अच्छा मानना नहीं। इसका नाम चोरी त्याग। इस महाव्रत को शास्त्रीय भाषा में सर्वथा अदत्तादान विरमण महाव्रत कहते है। 4. कोमल, सुंदर, मुलायम वस्तुओं का स्पर्श करना नहीं, स्वादिष्ट भोजन करना नहीं, सुगंधी फूलों को सूंघना नहीं, सुंदर वस्तुओं को देखना नहीं, मधुर संगीत सुनना नहीं, ऐसे अनेक वासनाओं को छोड देना। दूसरों के पास ऐसा कुछ कराना नहीं और जो ऐसा कर रहे है, उन्हें मन से अच्छा मानना नहीं। इसका नाम ब्रह्मचर्य। इस महाव्रत को शास्त्रीय भाषा में सर्वथा मैथुन विरमण व्रत कहते है। 5. पैसा, संपत्ति, मकान, जमीन, परिवार, माता-पिता सभी को छोड देना। दूसरों के पास भी यह सब कुछ रखवाना नहीं और जमीन, पैसा, मकान आदि का परिग्रह रखने वालों को मन से अच्छा मानना नही। इसका नाम परिग्रह त्याग। इस महाव्रत को शास्त्रीय भाषा में सर्वथा परिग्रह विरमण महाव्रत कहते है। प्रश्न: नवकार के पाँचवे पद में लोए शब्द की क्या जरुरत है ? उत्तर: मनुष्यों की उत्पत्ति मात्र ढाई द्वीप में ही होने से साधुओं का निवास स्थान, ढाई द्वीप जितने लोक में ही है। इसे सूचित करने के लिए लोए शब्द का प्रयोग किया गया है। इस से इसका अर्थ होता है ढाई द्वीप में रहे हुए सभी साधु भगवंतों को नमस्कार हो। प्रश्न: सव्व पद का क्या अर्थ होता है ? उत्तर: 1. लोए शब्द से ढाई द्वीप समझना चाहिए। ढाई द्वीप 900 योजन ऊंचा, अधोलोक की अपेक्षा से 1000 योजन गहरा और 45 लाख योजन तीी दिशा में फैला हुआ है। इसलिए यदि सव्व शब्द न हो तो लोए शब्द से मात्र अढाई द्वीप में रहे हुए साधुओं को ही नमस्कार होता है। लेकिन ढाई द्वीप के बहार मेरुपर्वत के पांडुक वन में या नंदीश्वर आदि द्वीप में जो लब्धिधारी साधु गए हो उन्हें नमस्कार नहीं होता है। वे भी साधु ही है। इसलिए उन्हें भी नमस्कार करने के लिए सव्व पद का प्रयोग किया गया है। इस तरह इसका अर्थ - लोक में जहां जहां जो जो साधु हो उन सभी को नमस्कार हो 2. जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया है लेकिन अरिहंत, सिद्ध, आचार्य या उपाध्याय नहीं है, ऐसे केवली भगवंतों को किसी पद में नमस्कार नहीं होता। उन्हें भी नमस्कार करने के लिए सव्व पद का प्रयोग किया गया है। इस तरह केवली, जिनकल्पी, परिहारविशुद्धि कल्पिक, प्रत्येक बुद्ध आदि सभी प्रकार के साधुओं को नमस्कार होता है। 3. सव्व = सर्व = सर्वज्ञ भगवंत संबंधी। इस तरह लोक में रहे हुए सर्वज्ञ भगवंत संबंधी साधुओं को नमस्कार हो, ऐसा अर्थ होने से सभी सुगुरूओं को वंदन होता है। बाबा, संन्यासी, फटोर आदि को नमस्कार नहीं होता। 34
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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