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________________ केशव के दृढतापूर्ण वचन सुनकर यात्रीगण बोलें अरे भाई ! हमें तुम्हारी बात नहीं सुननी है। हमने तो सारी रात अतिथि की खोज की, परंतु कोई अतिथि नहीं मिले। अतः हम पर अनुग्रह करके हमें लाभान्वित करो। ऐसा कहने के साथ ही सभी केशव के चरणों में पडे, तब भी केशव अपने व्रत में अविचल रहा। इतने में सभी को भारी आश्चर्य हो एसी घटना घटित हुई कि यक्ष की मूर्ति में से यकायक एक पुरुष बाहर निकला। इसके हाथ में मुदगर था। उसके नेत्र अत्यंत विकराल थे और आक्रोशपूर्वक वह केशव को कहने लगा अरे दुष्टात्मा ! तू कैसा दयाहीन है? धर्म के मर्म को भी नहीं समझता है। मेरे धर्म को तूने दूषित किया है और मेरे भक्तों की तू अवज्ञा । कर रहा है। तू भोजन करता है या नहीं ? अन्यथा अभी मैं तेरे मस्तक के केशब के गुरू को यक्ष से अपनी माया से बार डाला ! केशव को भयभीत करता हुआ यक्ष टुकडे-टुकडे कर डालता हूँ। केशव के लिए यह कठिन परिक्षा का पल था। अच्छे-चंगे व्यक्ति ऐसे प्रसंग पर कायर हो जाते है और “लो, भोजन कर लेता हूँ अरे भाई साहब ! मारना मत”, ऐसा कह दें, परंतु धैर्यवान आत्माएँ बिना हिम्मत हारे प्राणों की परवाह किये बिना प्रतिज्ञा का दृढता पूर्वक पालन करती है। उस समय केशव ने तनिक मुस्कुराकर यक्ष को कहा हे यक्ष ! तू मुझे क्षुभित करने के लिये यहाँ आया है, परंतु याद रख की मुझे मृत्यु का भय नहीं है। मृत्यु का भय तो अधर्म और पापी आत्माओं को होता है। मैं तो धर्म के लिये प्राण भी न्योछावर करने को तत्पर हूँ । अतः मेरी मृत्यु भी महोत्सव रुप होगी और परलोक में भी सद्गति का भागी बनूँगा । केशव के वचन सुनते ही यक्ष चिढ गया और अपने सेवकों भक्तों को उसने कहा कि जाओ यह ऐसे नहीं मानेगा, अतः इसके गुरु को पकड कर यहाँ ले आओ। इसकी आँखों के समक्ष ही इसके गुरु के टुकडे-टुकडे कर डालूँगा, क्योंकि केशव को इस मार्ग पर उसी ने चढाया है। अत: उसे ही दंड दे दूँ। यक्ष की आज्ञा होते ही सेवक दौड पडे और धर्मघोष नामक आचार्य को केशपाश में पकडकर यक्ष के समक्ष उपस्थित किया। उस समय यक्ष ने अपमानजनक शब्दों में आचार्यश्री से कहा - अरे मुनि ! तेरे इस शिष्य केशव को समझा और अभी भोजन करवा, वरना तत्काल तेरे भी टुकडे-टुकडे कर डालूँगा । तब धर्मघोष गुरु ने केशव को कहा - केशव ! देव-गुरु और संघ के खातिर अकृत्य भी करना पडता है, अत: तुझे तनिक भी विचार करने की आवश्यकता नहीं है, फिलहाल तू भोजन कर लें, वरना यह यक्ष मुझे कुचल डालेगा। मेरे प्राण हर लेगा, अतः मेरी रक्षा के खातिर भी तू भोजन ग्रहण कर लें। केशव तत्त्वज्ञ था, इस प्रकार यक्ष की माया में फँस जाए ऐसा वह न था । उसे दृढ विश्वास था कि मेरे गुरु धर्मघोष महाराज कभी भी ऐसे वचन कह ही नहीं सकते, यह सब इस यक्ष की माया लगती है। मेरे 112
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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