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________________ हंस और केशव आचार्य महाराज के पास रात्रि भोजन के त्याग का अभिग्रह ग्रहण करते हैं। D. रात्रि भोजन त्याग का कथानक हँस और केशव की कथा बात बहुत ही पुरानी और विख्यात है और अत्यंत उपयोगी है। कुंडिनपुर एक नगरी थी। वहाँ यशोधन नाम एक वणिक बसे हुए थे, जिनके रंभा नामक रुपवती पत्नी थी। उसकी कुक्षि से दो पुत्र रत्न उत्पन्न हुए, जिमें से एक का नाम था हँस और दूसरे का नाम था केशव। द्वितीया के चंद्र की भांति धीरेधीरे वे युवावस्था में आए । एक दिन दोनों ही कुमार उद्यान में क्रीडा करने के लिये गए। भाग्य का कुछ उदय था, अत: वहाँ उन्हें त्यागी साधु के दर्शन हुए। धर्मघोष सूरीश्वर के दर्शन होते ही उनका हृदय हर्ष से तरंगित हो गया। दोनों ही भाइओं ने वंदन किया और सूरिजी के पास बैठ गए । सूरिजी ने दोनों को योग्य जानकर बोध देना प्रारंभ किया। जिस प्रकार उपजाऊ भूमि में बीज बोने से शीघ्र उग जाता है उसी प्रकार आचार्य श्री के बोधक वचनों ने दोनों ही आत्माओं में अनन्य प्रकाश प्रसारित कर दिया। महाराज श्री ने मुख्यत: रात्रिभोजन के त्याग का उपदेश दिया था, रात्रिभोजन करने से इस लोक और परलोक में अनेक दोष उत्पन्न होते है, अनेक जीवों की हिंसा के साझेदार बनना पडता है, अत: सुज्ञ जनों को रात्रि भोजन का त्याग अवश्य करना चाहिए। आचार्य श्री की हृदयबोधक वाणी दोनों के हृदय मे उतर गई और दोनों ही भाईयों ने उसी समय रात्रिभोजन के त्याग की गुरु साक्षी मे प्रतिज्ञा ले ली। गुरू महाराज को भावपूर्वक वंदन करके दोनों भाई वहाँ से अपने घर लौट आए। माता से कहा माताजी ! हमारे रात्रि भोजन का त्याग है। अत: जो भी भोजन मे तैयार हो, वह दे दो, जिससे हमारे नियम पालन मे बाधा न आए। ___यह बात उनके पिता यशोधन ने सुनी और सुनते ही उनकी आँखे लाल-पीली हो गई। पिता ने सोचा कि अवश्य ही किसी धूर्त ने मेरे पुत्रों को छला है। रात्रिभोजन के त्याग की क्या आवश्यकता है? हमारे परिवार मे तो बरसो से रात्रि भोजन करने का रिवाज है। पिता ने सोचा कि ऐसे सीधी रीति से ये नहीं मानेंगे अत: इन्हें दो-तीन दिन तक बराबर भूखा रखा जाए, जिससे स्वत: ये अपने नियम को तोडेंगे-इस प्रकार विचार करके अपनी पत्नी रंभा को सूचित किया की भूल से भी इन लडकों को दिन मे भोजन करने के लिये मत देना। माता ने वैसा ही किया। पूरे छ: दिन बच्चे भूखे रहे। पर रात्रिभोजन नहीं किया। साथ ही माँ-बहन ने भी भोजन नहीं किया। __ छठे दिन रात्रि में पिता ने पुत्रो को कहा, वत्स् ! मुझे जो अनुकूल हो तदनुसार ही तुम्हें आचरण करना चाहिए, तभी तुम मेरे सच्चे पुत्र कहलाने के अधिकारी बन सकते हो। मुझे पता नहीं है, कि तुमने 1101
SR No.006119
Book TitleJain Tattva Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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