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________________ यह कर्म आत्मा के अरूपी गुण को रोकता है। यह कर्म के उदय से छोटा-बडा, काला गोरा, लम्बाछोटा स्वरूपवान - कदरूप, सौभाग्यवान - दुर्भाग्यवान, प्रिय-अप्रिय होता है। यह कर्म चित्रकार के जैसा है। जिस तरह चित्रकार रंग भरता है उसी तरह यह कर्म जिस-जिस जन्म में जीव जाता है उस जन्म के अनुसार शरीर, आकार, कद बनाता है। गति-जाति- -रूप-वैभव-सुख आदि का अभिमान करने से इस कर्म का बंधन होता है। प्रश्न. 1 शुभाशुभ नामकर्म बंध के कारण कौन से हैं ? उत्तर प्रमाद का त्याग करना। मन, वचन, काया को शुभ प्रवृत्ति में जोड़ना । धर्मात्मा का आदर सम्मान करने से शुभनाम कर्म बंध होता है। इससे विपरीत अशुभ नामकर्म का बंध होता है। 7. गोत्र कर्म : 7. गोत्र कर्म यह कर्म जीव को उच्च गोत्र एवं नीच गोत्र में ले जाता है। यह कर्म आत्मा के अगुरुलघु गुण को रोकता है। इस कर्म के उदय से उच्चकुल- नीचकुल प्राप्त होता है। गोत्र कर्म कुम्हार के जैसा है। जिस तरह कुम्हार (शुभ-अशुभ) दो तरह के मटके बनाता है उसी तरह इस कर्म के उदय से ऊँच-नीच गोत्र में जाते हैं। प्रश्न. 1 ऊँच गोत्र कर्म बंध के कौन से कारण हैं ? उत्तर स्वनिंदा करना, दूसरों की प्रशंसा करना, दूसरों के छोटे गुण को बढ़ा दिखाना और (स्व) स्वयं के छोटे दोष को बड़ा दिखाना, पूज्यों के प्रति आदर सन्मान करना, जिन भक्ति करना, अध्ययन-अध्यापन की रुचि रखना । प्रश्न. 2. ऊँच - गोत्रकर्म बंध का फल क्या है ? उत्तर उच्च कुल में जन्म लेना । सर्वत्र प्रेम, आदर-सत्कार सन्मान पात्र बनना । | प्रश्न 3 नीच गोत्रकर्म बंध कौन से कारण से बंधता है ? उत्तर दूसरों के दोष देखना, छोटे - दुर्गुण को बड़ा दिखाना । साधु-साध्वी की निंदा करना और स्व प्रशंसा करना । 57
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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