SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5. आयुष्य कर्म : 5. आयुष्य कर्म | यह कर्म जीव को 1) मनुष्य, 2) देव, 3) तिर्यंच, 4) नरक आदि चार गति में ले जाता हैं। यह कर्म आत्मा के अक्षयस्थिति गुण को रोकता है। इस कर्म के उदय से जीव को ज्यादा जीने की इच्छा हो तो भी ज्यादा नहीं जीता और जल्दी मरने की इच्छा हो तो भी नहीं मरता...यह कर्म (कैदी) बेडी से बंधे हुए मनुष्य के जैसा है... जिस तरह बेडी से बंधा हुआ मानव आजादी से नहीं जी सकता, उसी तरह आयुष्य कर्म के उदय के चलते जीवन से छुटकारा नहीं हो सकता। अगले भव हेतु यह कर्म बंधन इस भव में एक ही बार होता है। आयुष्य के तीसरे, नवमें, सताइसवें भाग में या मृत्यु के अवसर के पहले दो घड़ी में आगामी भव का आयुष्य बंधन होता है। यह कर्म बंधन के कारण ही तीथी के दिनों मे विशेष आराधना करने की होती है। जिससे शुभ आयुष्य बंधन हो...यह कर्म के उदय से जन्म-जरा-मृत्यु का अनुभव करना पड़ता है। 6. नाम कर्म : 6. नाम कर्म यह कर्म शरीर को : मोटा, पतला, काला, गोरा, लूला - लंगडा, स्त्री-पुरुष बनाता है। 56
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy