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4. मोहनीय कर्म :
4. मोहनीय कर्म
यह कर्म जीव को रुलाता, क्रोधित कराता, डराता, हंसाता हैं।
यह कर्म आत्मा के क्षायीक समकीत गुण को रोकता है। यह कर्म सर्व कर्मों का राजा है। इस कर्म के उदय से जी घबराता है, विवेक से भ्रष्ट होता है। आसक्ति और राग के परिणाम वाला होता है। हास्यशोक-भय- विरह (रोना) वगैरह का अनुभव होता है।
यह कर्म मदिरापान करने जैसा है। जिस तरह मदिरापान किया हुआ मानव विवेक भ्रष्ट बनता है उसी तरह मोहनीय कर्म के उदयवाला जीव सार असार, योग्य-अयोग्य का विवेक भूल जाता है।
धर्म का सच्चा मार्ग छोड़ उल्टा मार्ग दिखानेवाला, देवद्रव्य की चोरी करनेवाला, भगवान साधु वगैरह का विरोध करनेवाला मोहनीय कर्म बंधन करता है।
प्रश्न. 1 मोहनीय कर्म के मुख्य कौन से प्रकार हैं ?
उत्तर
दो प्रकार हैं 1. दर्शन मोहनीय कर्म और 2. चारित्र मोहनीय प्रश्न. 2 दर्शन मोहनीय कर्मबंध के फल कौन से हैं ?
उत्तर
परमात्मा एवं परमात्मा के धर्म के प्रति अश्रद्धा होती है। प्रश्न. 3 दर्शन मोहनीय कर्म बंध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर उन्मार्ग का उपदेश देना, सन्मार्ग का नाश करना, देवद्रव्य का भक्षण करना या उपेक्षा करना। चतुर्विध संघ का विरोध करना - निंदा करना।
प्रश्न. 4 चारित्र मोहनीय कर्मबंध के कारण कौन से हैं ?
उत्तर
विषय कषाय में अत्यंत आसक्त होना। दीक्षा लेने वालों को रोकना • अंतराय करना । सामायिक प्रतिक्रमण करते रोकना। धर्माराधना न कर सकें ऐसा वातावरण बनाना ।
प्रश्न. 5 चारित्र मोहनीय कर्मबंध का फल क्या है ?
उत्तर
दीक्षा लेने की तीव्र अभिलाषा होने पर भी अनेक प्रयत्न करने से भी दीक्षा नहीं मिलना । धर्मानुष्ठान एवं श्रावकाचार का पालन नहीं कर सकता।
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