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की डालियाँ परमात्मा को नमन करने के लिए नीचे झुकती है। अनुकूल हवा बहती है। छ: ऋतु
समकाल बन जाती है। इस तरह परमात्मा की हर कोई पूजा करता है। 4. अपाया-पगमातिशय: अपाय = तकलीफ, खतरा, कष्ट आदि ; अपगम = दूर होना
परमात्मा जहां विचरण करते है वहां सवा सौ योजन के दायरे में किसी को भी मारी-मरकी-रोगउपद्रव, दुष्काल, अतिवृष्टि आदि मुशकिलें नहीं आती । जो रोग पहले से हो वे नष्ट हो जाते है। छ: महीने तक नए रोग उत्पन्न नहीं होते।
इस प्रकार चार अतिशय और आठ प्रातिहार्य मिलकर अरिहंत परमात्मा के 12 गुण होते है। इनके विस्तार से वर्णन करने पर परमात्मा के 34 अतिशय भी दृष्टिगत होते है। इसका वर्णन हमारे समवायांग सूत्र नामक आगम शास्त्र में मिलता है। प्रश्न: अरिहंत परमात्मा के 34 अतिशय कौन कौन से है ? उत्तर: जन्म से 4, कर्मक्षय से 11 और देवों द्वारा किए गए 19 कुल =34 अतिशय जन्म से 4 अतिशयः
अरिहंत परमात्मा को जन्म से ही चार अतिशय उत्पन्न होते है। 1. तीर्थंकर प्रभु का शरीर रोग, पसीने और मैल रहित होता है। उनका शरीर अत्यंत रुपवान होता है। 2. प्रभु का वासोश्वास कमल जैसा सुगंधी होता है। 3. प्रभु का माँस और रक्त गाय के दूध के समान सफेद होता है। 4. प्रभु का आहार-निहार अदृश्य होता है। कर्मों के क्षय से 11 अतिशय: अरिहंत प्रभु को ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षय होने से निम्न 11 अतिशय उत्पन्न होते है। 1. देवता एक योजन लंबा समवसरण बनाते है जिसमें करोडो देव आराम से समा सकते है। 2. प्रभु की वाणी अर्थगंभीर होती है जो एक योजन तक सुनी जा सकती है। देव, मनुष्य, पशु-पक्षी सभी अपनी अपनी भाषा में परमात्मा की वाणी समझ सकते है। 3. प्रभु के आसपास 125 योजन तक किसी को रोग नहीं होता। 4. जन्मजात शत्रुजन जैसे चूहा-बिल्ली अपनी दुश्मनी भूल जाते है। 5. चूहें इत्यादि अन्य प्राणियों का उपद्रव नहीं होता है। 6. मारी (प्लेग-कॉलेरा) आदि रोग नहीं होते। 7. अतिवृष्टि (बाढ) नहीं होती है। 8. अनावृष्टि (सूखा) नहीं होता है। 9. अकाल (अन्न-पानी का न मिलना) भी नहीं होता है। 10. स्वचक्र तथा परचक्र का भय नहीं होता है। 11. प्रभु के मस्तक के पीछे चमकता हुआ भामंडल होता है।
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