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जैन तत्त्व दर्शन
6. श्री स्थूलिभद्र मुनि
पाटलीपुत्र के महामन्त्री शकडाल का पुत्र था स्थूलिभद्र । वह कोशा नृत्यांगना से अत्यंत प्रेम करता था । उसके साथ उसके महल में ही रहता था। दोनों साथ-साथ में आपस में रंगराग में अपना समय व्यतीत करते थे । किसी कारणवश महामंत्री शकडाल के कहने पर उसके छोटे पुत्र श्रीयक ने भरसभा में उनकी हत्या कर दी। इस घटना से स्थूलभद्र के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और मुनि संभूतिविजयजी के पास चारित्र ग्रहण किया ।
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चारित्र - आराधना से गंभीर बने हुए स्थूलिभद्र ने विचार किया कि जिसके साथ 12 वर्ष व्यतीत किये उस कोशा वेश्या को भी धर्म मार्ग में जोडूं ! इस विचार से गुरु आज्ञा प्राप्त करके कोशा के महल में चातुर्मासार्थ पधारे ।
कोशा वेश्या अपने प्रियतम को देख अत्यन्त खुश हुई । सोलह श्रृंगार सजकर उनका स्वागत करती है । मुनि अपने आने का प्रायोजन बताते हैं। कोशा की रंगशाला में नग्न चित्रपटों के बीच रहकर भी मुनि स्थूलभद्र के मन में जरा सा भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ । कहते हैं.
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“जे रह्या काजल घरवास, पण डाघ न लाग्यो जरा । "
काजल की कोठरी में रहकर भी उन्हें अंशमात्र भी दाग नहीं लगा । कोशा विध- विध नृत्य करके उन्हें विचलित करने की कोशिश करती, लेकिन वे सागर से भी अधिक गम्भीरता धारण कर अपने ध्यान में निमग्न रहते। आखिर कोशा हार गयी और उनसे श्राविका-धर्म अंगीकार कर श्राविका बन गयी ।
चातुर्मास पूरा कर अपने गुरु के पास आये तो गुरु ने "दुष्कर दुष्कर” ऐसे वचन उल्लसित मन से कहा। पूर्व सहवासी वेश्या के साथ विचित्र रंगमण्डप में रहकर भी मन को विकार रहित रखने वाले श्री स्थूलभद्र स्वामी का नाम चौरासी (84) चोबीसी तक अमर रहेगा ।
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