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________________ जैन तत्त्व दर्शन लगी। उसकी भक्ति की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। “धन्य है रानी लक्ष्मीवती को, दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।" यह रानी तो सुख में भी प्रभु सुमिरन करती है, धन्य है।।' बच्चे, बुढे, नौजवान सभी के मुँह पर एक ही बात-धन्य है रानी लक्ष्मीवती, धन्य है इसकी प्रभु भक्ति। लोक में कहा जाता है जिसको ज्वर चढ़ जाता है, उसे अच्छा भोजन भी कडवा लगता है। रसगुल्ला खिलाओं, तो भी वह व्यक्ति थू...थूकरेगा। ईर्ष्यालु व्यक्ति की यही दशा होती है। रानी कनकोदरी के अंग-अंग में ईर्ष्या का बुखार व्याप्त हो गया | अपनी सौतन की प्रशंसा उससे सहन नहीं हो पाती थी। लोग मेरी प्रशंसा क्यो नहीं करते?' यह बात वह निरन्तर सोचती रहती थी। 'तू भी धर्म कर, तू भी परमात्मा की पूजा-सेवा कर| अरे! उससे भी बढ़कर लोग तेरी प्रशंसा करेंगे।' 'मैं करूँ या नहीं करूँ, मगर लक्ष्मीवती की प्रशंसा तो होनी ही नहीं चाहिये।' इस प्रकार के विचारों की आंधी कनकोदरी के दिल और दिमाग मैं ताण्डव नृत्य मचाने लगी। देखिये! ईर्ष्या की आग, ईर्ष्या की धुन कैसी-कैसी भयंकर विपदाएं खड़ी कर देती हैं? कनकोदरी ने निर्णय लिया “मूलं नास्ति कुतः शाखा" जब बाँस ही नहीं रहेगा, तो बाँसुरी बजेगी कैसे? लोग इसकी प्रशंसा करते हैं आखिर क्यों? मूर्ति है इसलिये न! मूर्ति है इसलिये वह पूजा करती है, जिससे लोग प्रशंसा करते हैं और मुझे जलना पड़ता है। यदि मूल को ही काट दिया जाये, तो बस, चलो छुट्टी! और वह सक्रिय हो उठी। ईर्ष्या से अन्धी बनी हुई कनकोदरी एक भयंकरकृत्य करने के लिये तत्पर हो गयी। अत्यंत गुप्त रीति से वह गई गृहमंदिर में और परम कृपालु परमात्मा की मूर्ति को उठाकर डाल दी...अहा...हा!कूडे करकट में...अशुचि स्थान में... अरे! ऐसी गंदगी में जहाँ से भयंकर बदबू ही बदबू आ रही थी। मगर उस अज्ञानान्ध, ईर्ष्यान्ध स्त्री को इस बात का दुःख तो दूर, लेकिन अपार हर्ष था, अपनी नाक कटवा कर जैसे दूसरों के लिये अपशुकन करने का अनहद आनन्द हो । ओह!.... "हंसता ते बॉध्या कर्म, रोतां ते नवि छूटेरे।जैसे कर्म करेगा बंदे, वैसा ही फल पायेगा | काश! कनकोदरी यह जान पाती! पूरे राज्य में हाहाकार मच गया | तहलका मच गया....चोरी....चोरी!! रानी लक्ष्मीवती की आँखे रो...रो कर सूज गयी। हाय! मेरे परमात्मा को कौन उठा ले गया? साध्वी जयश्री को इस बात का राज मिल गया | उन्होंने कनकोदरी को समझा-बुझा कर परमात्मा की पुनःस्थापना तो करवा दी। लेकिन कनकोदरी ने इस कृत्य की विधिवत् आलोचना नहीं ली। इसलिये उसे इस कृत्य का भयंकर परिणाम भुगतना पड़ा अंजना सुंदरी के भव में। अंजना सुंदरी को पति-वियोग में बाईस वर्ष तकरो...रो...कर व्यतीत करने पड़े। पूर्व भव में वसन्ततिलका ने उसके इस अपकृत्य का अनुमोदन किया था, अतः उसे भी अंजना के साथ दुःख सहने पड़े। यदि हम किये गये पापों की आलोचना नहीं करते हैं और प्रायश्चित लेकर शुद्ध नहीं बनते हैं, तो उसका अति भयंकर परिणाम भुगतान पड़ता है, जैसे अंजना सुन्दरी की जिन्दगी के वे वियोग भरे वर्ष आँसू की कहानी बन कर रह गये। 66
SR No.006117
Book TitleJain Tattva Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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