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________________ जैन तत्त्व दर्शन नहीं ली, तो दूसरे भव में नेमनाथ भगवान के पास दीक्षा लेकर जब वे ढंढण मुनि बने, तब उन्होंने अभिग्रह किया कि यदि मेरी स्वयं की लब्धि से आहार मिलेगा, तो ही पारणा मैं करूंगा, अन्यथा नहीं। यहाँ दूसरों को भोजन में किये हुए अंतराय के कारण बांधा हुआ अंतराय कर्म उदय में आया । शास्त्रकार ने कहा है कि "बंध समये चित्त चेतीये रे, उदये शो संताप" अरे जीव! कर्मो को बांधते समय विचारना चाहिये, उदय आने पर रोने से क्या फायदा... हँसते हुए बांधे कर्म रोने से भी नहीं छूटते... छः छः महिने तक घूमे, परंतु उनको स्वयं की लब्धि से गोचरी नहीं मिली। एक दिन नेमिनाथजी ने ढंढण मुनि को सर्वश्रेष्ठ कहा, यह सुनकर आये हुए कृष्णजी ने उनको रास्ते में वंदन किया, यह देखकर एक पुण्यशाली ने ढंढण मुनि को गोचरी वहोरायी। पूछे जाने पर नेमीनाथ भगवान ने ढंढण मुनि से कहा...अरे ढंढण! ये तो कृष्ण महाराजा आपको वंदन कर रहे थे, इसलिये भावित होकर उसने आपको गोचरी वहोरायी है... इस प्रकार श्रीकृष्ण के प्रभाव (लब्धि) से आपको गोचरी वहोराई गयी है, अतः आपकी लब्धि से यह आहार नहीं मिला है... स्वयं का अभिग्रह पूरा नहीं हुआ है, यह जानकर वे गोचरी परठवने गये। परठवते परठवते शुक्ल ध्यान में चढ़कर उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त किया। आहार के अन्तराय की आलोचना नली, उससे कितना सहन करना पड़ा... इसलिये हे भविजनो! आलोचना अचूक लेनी चाहिये। 5. अंजना सुन्दरी दुःखी क्यों हुई? एक राजा की दो पत्नियाँ थी। लक्ष्मीवती और कनकोदरी। लक्ष्मीवती रानी ने अरिहंत-परमात्मा की रत्नजड़ित मूर्ति बनवाकर अपने गृहचैत्य में उसकी स्थापना की। वह उसकी पूजा-भक्ति में सदा तल्लीन रहन
SR No.006117
Book TitleJain Tattva Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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