SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन तत्त्व दर्शन 7.कंठ : सोल प्रहर प्रभु देशना, कंठे विवर वर्तुल मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तेणे गले तिलक अमूल ||7|| हे प्रभु! आपने सतत 16 प्रहर तक मधुर ध्वनि से देशना दी। देव मनुष्य ने वह देशना सुनी। आपकी कंठपूजा के प्रभाव से मुझे भी सत्पुरुषों के गुणगान करने का सौभाग्य प्राप्त हो। 8.हृदय : हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष ___ हिम दहे वनखंड ने, हृदय तिलक संतोष ||8|| हे प्रभु! जिस प्रकार हिम (बर्फ) वनखंड को जमा देता है, उसी प्रकार आपने हृदय कमल के उपशम भावरूपी बर्फ (करा) से राग-द्वेष रूपी वनखंड को जमा दिया है। आपके ऐसे हृदय की पूजा से मुझे जीवन में संतोष गुण की प्राप्ति हो। 9.नाभि : रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विसराम नाभि कमल नी पूजना, करतां अविचल धाम ।।७।। हे प्रभु! ज्ञान-दर्शन चारित्र से उज्जवल बनी, सकल सद्गुणों के निधान स्वरूप आपके नाभि कमल की पूजा से मुझे अविचल धाम अर्थात् मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। 10.नवअंग का महत्व : उपदेशक नव तत्त्वना, तेणे नव अंग जिणंद पूजो बहुविध राग थी, कहे शुभवीर मुणिंद ||10| प्रभु ने नवतत्त्वों का उपदेश दिया । इसलिये प्रभु के नवअंग की पूजा बहुमानपूर्वक करनी चाहिये । प्रभु की पूजा से अपने अंदर नव तत्त्वों के हेयोपादेय का ज्ञान होता है। C. परमात्मा कौन? जो सभी को सच्चा सुख का मार्ग बताते हैं वे ही भगवान बनते हैं। दुनिया में बहुत सारे देवीदेवता हैं तो सच्चे भगवान कौन हो सकते हैं? आपही परीक्षा करो... प्रश्न 1 : जो शस्त्रधारी होते हैं, क्या वे भगवान हो सकते हैं? उत्तर : नहीं...क्योंकि उनसे तो हमें डर लगता है। शस्त्र द्वेष का प्रतीक है। द्वेषी व्यक्ति हमें सुख नहीं देसकता। प्रश्न 2 : जोस्त्री को अपने पास रखते हैं, क्या वे भगवान हो सकते हैं? उत्तर : नहीं...क्योंकि स्त्री राग का कारण है, जो एक से राग करता है, वह सभी को समान दृष्टि से नहीं देख सकता। प्रश्न 3 : सब जीव को सुख देने वाले भगवान कौन हो सकते हैं ? उत्तर : जो राग-द्वेष रहित हो, जिसको देखते ही मन खुश हो जाय, जो हमारे विषय-कषाय को नाश कर हमारा सच्चा हित करे ऐसे वीतराग प्रभु ही सच्चे देव हो सकते हैं। 25
SR No.006117
Book TitleJain Tattva Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy