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कविसोम रचित
श्रीहीरविजयसूरिकवित विजै कुशल प्रभ हंस विमल रुचि सुंदर सागर, कीरत चंद सोभाग . धर्म रंग गुणके सागर उदै रतन सोम . क आणंद वर्धन हर्ष वडाइ, शाखा एह अढारह एक कुल सब गुरुभाई । कवि राव कहै चितोडपति वर्ण च्यार जंपा अजंपा, चोर्यासी गच्छ मांहै सिरै तपै पाट अविचल तपा ॥ १ ॥ अगडदौं अगडदौं नगारोंकी धौंस पडे गुरु पूर्बदेस पधारणकुं, कुमति जनको टकुरांण पढे भयभीत भयो जग भारणकुं, मुख गंगतरंग प्रवाह वहै अरिहंतको नाम उच्चारणकुं, कवि सोम कहै गुरु हीर भरारक एह भयो जग तारणकुं ॥ २॥ पातिसाह अकब्बर आप कहैं गुरु हीरविजैसूरि आईयें ज्यु, हम पापकी चाल चलावत हैं तुम धर्मको राह बताईयें ज्युं, . विजैदानकै पाट उद्योत भयो महीमंडल सोभ चढाइयें ज्युं, तपगछकै. नायक हीरसूरि दर्शण सेती आणंद पाइयें ज्युं ॥ ३ ॥ सब मृगनेंण (२) चली गुरु वंदणकुं मुख छूट मांनु गजराज घटा, कर कंकणं चूड पलकति नेउर हार बण्यो सर छूट लटा, गौरी गावती मंगल गीत सुवासणी पूरती मोतीको चोक छटा, कवि सोम कहै गुरु हीर भटारक ओर करे सब पेट लटा ॥ ४ ॥ ..
इति श्रीहीरविजयसूरजीरा कवित्त संपूर्ण ॥ श्री सिद्धाचलजीरा भाट वीरचंद लिषावतं ॥