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________________ પ્રાણોનો વિનાશ ન કરવો જોઈયે. અજ્ઞાની પુરૂષ ધનઉપાર્જનના નિમિત્તે વિવિધ પ્રકારે આરંભ કરે છે પરંતુ તે જ ધન તેના રક્ષણરૂપ, શરણરૂપ થતું નથી. તે બીચારો સ્વયં કરેલા પાપકર્મોને સાથે લઈને પરલોકમાં જાય છે અને વિવિધ પ્રકારે દુઃખોને (भोगवे छे. શ્રી તીર્થંકર પ્રભુએ સ્પષ્ટ કહ્યું છે કે સાવદ્ય આરમ્ભમાં જીવન વ્યતીત કરવાવાળા પુરૂષો (જીવો) સંસારસાગર પાર કરી શકતા નથી એટલે જ વિવેકી પુરૂષોએ સાવધે भारमनी अवश्य त्या ४२वो ऽथ ॥ ८०॥ __ भावार्थ :- मोक्ष की इच्छा करने वाले ज्ञानी पुरूष परीषह और उपसर्गों को सहन करते हुए दृढ़ता के साथ संयम का पालन करते हैं किन्तु अज्ञानी मनुष्य धर्माचरण में प्रमाद करते हैं । वे सोचते हैं कि वृद्धावस्था आने पर धर्माचरण कर लेंगे परन्तु ऐसा सोचना उनकी भूल है क्योंकि मृत्यु के आने का कोई नियत समय नहीं है अतः धर्माचरण में एक क्षण मात्र का भी प्रमाद न करना चाहिए। संसार में जितने प्राणी हैं सभी को अपनी आय बड़ी प्यारी होती है। सभी सुख के अभिलाषी हैं, दुःख कोइ नहीं चाहता । अतः किसी भी प्राणी को दुःख न देना चाहिए और न किसी के प्राणों का विनाश करना चाहिए । अज्ञानी पुरुष धनोपार्जन के निमित्त नाना प्रकार का आरम्भ करते हैं किन्तु वह धन उनके लिए बाण शरण रूप नहीं होता । वह बिचारा केवल अपने पाप कर्म को अपने साथ लेकर परलोक में जाता है और वहाँ नाना प्रकार के दुःखों को भोगता है। श्री तीर्थङ्कर देव ने स्पष्ट कहा है कि सावध आरम्भ में जीवन व्यतीत करने वाले पुरुष कभी संसार सागर को पार नहीं कर सकते हैं । अतः विवेकी पुरुष को सावध आरम्भ का अवश्य त्याग कर देन चाहिये ॥ ८० ॥ अयं चोपदेशोऽनवगततत्त्वस्य विनेयस्य यथोपदेशं प्रवर्त्तमानस्य दीयते, यस्त्ववगतहेयोपादेयविशेषः स यथावसरं यथाविधेयं स्वतः एव विधत्ते इत्याह च उद्देसो पासगस्स णत्थि बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्ल्ड अणुपरियट्टइ ॥ ८१ ॥ त्ति बेमि ॥ उपदेश उद्देशो वा - नारकादिव्यपदेशो वा पश्यकस्य - सर्वज्ञस्य तदुपदेशवर्तिनो वा नास्ति, बालः पुनः निहः - परीषहोपसगैर्निहन्यत इति यदि वा स्निहः-स्नेहवान् रागीति यावत् कामसमनोज्ञः कामाः सम्यग् मनोज्ञा यस्य स यद्वा कामैः सह मनोज्ञः यदिवा कामान् सम्यगनुपश्चात् स्नेहानुबन्धाज्जानाति - सेवत इति कामसमनुज्ञः, एवंभूतश्च किंभूतो भविष्यतीत्याह - अशमितदुःखो दुःखी दुःखानामेव आवर्तम् अनुपरिवर्तते ॥ इति ब्रवीमि ॥८१॥ . अन्वयार्थ - पासगस्स - मनुष्य शानपान छ तेना भाटे उद्देशो - उपदेशनी भा१श्यता णत्थि - छे नही, बाले - 4 - मनी णिहे - २।।द्वेषथी भोलित भने ७४ )00OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO| श्री आचारांग सूत्र
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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