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भावार्थ :- हिताहित के विवेक से रहित कितनेक अज्ञानी जीव गृहस्थाश्रम को छोड़ कर प्रव्रजित तो होते हैं किन्तु विषयभोगों के सामने आने पर वें उनमें फँस जाते हैं । वे न इधर के रहते हैं और न उधर के अर्थात् वे न तो गृहस्थ ही कहे जा सकते हैं और न साधु ही कहे जा सकते हैं ॥ ७३ ॥ ये पुनरप्रशस्तरतिनिवृत्ताः प्रशस्तरतिमधिशयानास्ते किंभूता भवन्तीत्याह
विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामे णाभिगाहइ
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विमुच्यमाना विमुक्ताः खलु ते जना ये जनाः पारगामिनः संयमानुष्ठायिनः कथमित्याहलोभमलोभेन जुगुप्समानो- निन्दन् परिहरन् वा लब्धान् कामान् नाभिगाहत इति ॥७४॥
अन्वयार्थ :- जे - ४ जणा - ५३ष पारगामिनो - पारगामी छे अर्थात् ४ पुरषो ज्ञान-दर्शन-यरित्रने प्राप्त हुंरी हीधेस छे. ते - ते हु - अवश्यमेव ४ मुत्ता - भुक्ति प्राप्त ४२वावाणा छे. अलोभेण जसोल वृत्तिना द्वारा लोभं - सोलथी दुगुंछमाणे घृणा ४२वावाणा पु३ष लद्वे - प्राप्त थयेस कामे - अमलोगोने णाभिगहइ - सेवन नथी डरतां.
भावार्थ - झोध-मान-भाया-सोल खा यार उषायोमां सोल सौथी प्रधान छे. લોભને વશ થયેલા પ્રાણી ન કરવાના કાર્યો કરી નાંખે છે. એટલેજ લોભાદિ કષાયોને છોડીને જેઓએ સમ્યગ્ જ્ઞાન-દર્શન-ચારિત્ર અંગીકાર કરેલા છે તે અવશ્ય મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે.
यथाहारपरित्यागः ज्वरितस्यौषधं तथा ।
लोभस्यैवं परित्यागः असंतोषस्य भेषजम् ॥
भडे बोलने संतोषथी, डोधने शांति (क्षमाथी), मानने मृदुता (नम्रताथी) અને માયાને ૠજુતા (સરલતા) થી જીતવા જોઈએ. જેમ તાવથી પીડિત મનુષ્યને આહાર પરિત્યાગ ઔષધિ છે તેમ લોભ પરિત્યાગ માટે સંતોષ ઔષધિ સમાન છે. ७४ ।।
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भावार्थ:- क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चारों कषायों में लोभ सब से प्रधान है। लोभ के वश प्राणी न करने योग्य कार्य भी कर बैठता है । इसलिए लोभादि को छोड़ कर जिसने सम्यग् ज्ञान दर्शन बोरित्र को अंगीकार कर लिया है वह अवश्य मोक्ष को प्राप्त करता है 1
लोभ को अलोभ (संतोष) से जीतना । क्रोध को शान्ति से, मान को मृदुता (नम्रता) से और माया ऋजुता ( सरलता) से जीतना चाहिये। जैसे- बुखार से पीड़ित व्यक्ति के लिये आहार परित्याग (उपवास करना) औषधि है वैसे ही लोभ परित्याग के लिये संतोष औषधि है ॥ ७४ ॥
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