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________________ ચેતનરૂપ ન માની જડ માનવા તે મિથ્યાભાષણ છે. જે પુરૂષ અપકાયના જીવોનો અપલાપ કરે છે. તે આત્માના અસ્તિત્વનો પણ અપલાપ કરે છે. અર્થાત જે અનાત્મવાદી પુરૂષ ખરેખર એકાયના જીવોના અસ્તિત્વનો સ્વીકાર નથી કરતા, પરંતુ તેની આ मान्यता मिथ्या भने मशानभूत छ. ॥ २२ ॥ भावार्थ :- यहाँ अप्काय का वर्णन चल रहा है । इसलिए यहाँ 'लोक' शब्द के अप्काय रूप लोक लिया गया है । अकाय के जीवों के अस्तित्व को न मानना उनका अभ्याख्यान करना है । अतः अकाय को चेतन न मान कर जड़ मानना मिथ्या भाषण करना है। जो पुरुष अप्काय के जीवों के अस्तित्व का अपलाप करता है वह आत्मा के अस्तित्व का भी अपलाप करता है अर्थात् अनात्मवादी पुरुष ही अकाय के जीवों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता किन्तु यह उसकी मान्यता मिथ्या एवं अज्ञानमूलक है ॥ २२ ॥ . अकायलोकं ज्ञात्वा साधवो न तद्विषयमारम्भं कुर्वन्ति, शाक्यादयस्त्वन्यथोपस्थिता इति दर्शयितुमाह लज्जमाणा पुढो पास । अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ । तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव उदयसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा उदयसत्थं समारंभावेइ, अण्णे उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणइ। तं से अहियाए, तं से अबोहिए। से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय, सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इच्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ । से बेमि संति पाणा उदयणिस्सिया जीवा अणेगे ॥ २३ ॥ णास्सया |श्री आचारांग सूत्र 0000000000000000000000000000७(१९
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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