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भिक्षा लेने के लिए जाते हुए भगवान् को रास्ते में भूख से व्याकुल जो कौए आदि प्राणी दाना पानी के लिए जमीन पर बैठे हुए दिखाई देते थे तथा ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि, चण्डाल, बिल्ली और कु. आदि प्राणी कुछ मिलने की आशा से खड़े दिखाई देते थे उनको किसी भी प्रकार की बाधा एवं अन्तरा पहुंचाये बिना भगवान् वहाँ से धीरे धीरे चले जाते थे और उन प्राणियों पर अपने मन में अप्रीति भी न ला थे । कुन्थु आदि प्राणियों की हिंसा न करते हुए भगवान् भिक्षाटन करते थे ||१० से १२॥
रूखा सूखा, 'ठण्डा कुलत्थी का अथवा पुराने तथा नीरस धान्यो का बना हुआ, जैसा भी आहार भगवान् को मिल जाता, वे उसी में सन्तोष करते थे। आहार के मिलने पर या न मिलने पर भगवान् सदा शान्त रहते थे ॥१३॥
भगवान् उत्कटुक, गोदोहिका, वीरासन आदि आसनों से बैठ कर धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान किया करते. थे और वे अपने अन्तःकरण की शुद्धि को देखते हुए ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् इन तीनों लोकों के स्वरूप का चिन्तन किया करते थे ||१४|
भगवान् महावीर स्वामी अकषायी थे क्योंकि कषाय के उदय से उन्होंने किसी पर भी अपनी भ्रुकुटी, टेढी नहीं की थी । वे शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं होते थे अर्थात् अनुकूल विषयों में राग और प्रतिकूल में द्वेष नहीं करते थे । वे सदा शुभ अनुष्ठान में ही प्रवृत्त रहते थे। इस प्रकार उन्होंने छद्मस्थ अवस्था में एक बारे भी प्रमाद का सेवन नहीं किया था ॥१५॥
संसार की असारता और तत्त्वों को स्वयमेव भली प्रकार जान कर तथा आत्मशुद्धि द्वारा मन वचन काया के योगों को अपने वश में करके माया रहित अर्थात् क्रोधादि कषाय न करते हुए भगवान् सदा शान्त तथा पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त थे ॥ १६ ॥
प्रभु महावीरस्वामीने पूर्वोक्त प्रकार से आचरण किया था, इसलिए दूसरे मोक्षार्थी पुरुषो को भी इसी प्रकार आचरण करना चाहिए, ऐसा श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जंबूस्वामी से कहते है ||१७||
प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त
-: प्रशस्ति
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૫. પૂજ્ય તપાગચ્છાચાર્ય આત્મ-કમલ-લબ્ધિ ભુવનતિલકભદ્રંકર અરૂણપ્રભસૂરીશ્વરના દિવ્યપાએ વિ.સં. ૨૦૬૫૫ વર્ષે શ્રી આચારાંગસૂત્રના પ્રથમ શ્રુતસ્કંધનું સંપાદન તથા ગુજરાતી અનુવાદ મુનિવર્ય વિક્રમસેનવિજયએ પૂર્ણ કર્યો.
॥ शुभं भूयात् ॥
(३४८ popopopoppose श्री आचारांग सूत्र