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इन्द्र के द्वारा डाले हुए देवदूष्य वस्त्र के सिवाय कुछ नहीं था । उसी दिन भगवान् क्षत्रियकुण्डग्राम से बिहार करके कुमार ग्राम को एक मुहूर्त दिन शेष रहते पहुँच गये थे ॥१॥
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भगवान् ने देवदूष्य वस्त्र को इस आशय से धारण नहीं किया था कि मैं इसके द्वारा हेमन्त ऋतु अपना शीत निवारण करूँगा अथवा लज्जा को ढकूँगा क्योंकि भगवान् ने जीवन पर्यन्त के लिए सांसारिक पदार्थों का त्याग कर दिया था । अतः उस वस्त्र को धारण करने का एक मात्र ही कारण था कि पहले के समस्त तीर्थङ्करों ने देवदूष्य वस्त्र को धारण किया था । अतः भगवान् के लिए यह पूर्वाचरित धर्म था ।
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आगमों में ऐसा वर्णन आता है कि भूत काल में जितने तीर्थङ्कर हुए हैं तथा भविष्य काल में जो होंगे एवं वर्तमान काल में जो हैं, उन सभी ने प्रव्रज्या लेते समय देवदूष्य वस्त्र को धारण किया था, करेंगे और करते हैं। इसी परिपाटी के अनुसार भगवान् महावीरस्वामी ने भी देवदूष्य वस्त्र धारण किया था ||२॥
दीक्षा ग्रहण करते समय भगवान् का शरीर दिव्य गोशीर्ष ( बावना) चन्दन और सुगन्धित चूर्ण से सुगंधित किया गया था उसकी गन्ध से आकर्षित होकर भंवरे आदि प्राणी उनके शरीर पर आते थे और रक्त मांस की इच्छा से उनके शरीर को उसते थे । कुछ अधिक चार मास तक भगवान् ने उन प्राणियों द्वारा दिया हुआ कष्ट सहन किया था ॥ ३ ॥
वह वस्त्र भगवान् के शरीर पर कुछ मास अधिक एक वर्ष तक रहा। उसके पश्चात् उस के गिर जाने से वस्त्र रहित हुए ||४||
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अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज्ज अन्तसो झायई । अह चक्खुभीया संहिया ते, हन्ता हन्ता बहवे कंदिंसु ॥ ५ ॥ सयहिं वितिमिस्सेहिं, इत्थिओ तत्थ से परिन्नाय । सागारियं न सेवेइ य, से सयं पवेसिया झाइ ॥ ६ ॥ जे के इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाइ । पुट्ठोवि नाभिभासिंसु, गच्छइ नाइवत्तइ अंजू (पुट्ठो व सो अपुट्ठो व नो अणुन्नाइ पावगं भगवं) ॥ ७ ॥ णो सुकरमेयमेगेसिं, नाभिभासे य अभिवायमाणे ।
हयपुब्वे तत्थ दंडेहिं, लूसियपुव्ये अप्पपुण्णेहिं ॥ ८ ॥
अथ पौरुषीं - पुरुषप्रमाणां वीथीं तिर्यग्भित्तिं - शकटोर्द्धिवच्चक्षुः समासाद्य - दत्त्वाऽन्तशो
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मध्ये ध्यायति - इर्यासमितो गच्छति । अथ चक्षुर्भीता दर्शनभीताः संहितास्ते मिलिताः
श्री आचारांग सूत्र ७७७७)এ6এএএ6এ6এএএএএ6এ३११