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________________ તાપ આપવા માગે તો મુનિ તેને કહે કે હે દેવાનુપ્રિય ! સ્વયં અગ્નિને મારા વડે સળગાવવી અને બીજાઓ પાસે સળગાવડાવી અને તેના દ્વારા શરીરને તપાવવું તે મને કલ્પતું નથી, કારણ કે અગ્નિનું સેવન કરવું તે અમારા જેવા સાધુઓના આચાર વિરૂદ્ધ छे, सेटले हुं अग्निडायनो उपयोग नथी हरी शडतो. ॥ २१० ॥ भावार्थ:- शीतकाल में सर्दी के कारण यदि किसी मुनि का शरीर कांप रहा हो तो उसे देख कर यदि कोई गृहस्थ मुनि से यह पूछे कि हे मुने ! आपका शरीर क्यों कांप रहा है ? क्या आपको विषय तो नहीं सता रहा है ? तो मुनि उस गृहस्थ स्पष्ट उत्तर दे कि हे देवानुप्रिय ! मुझे विषय नहीं सता रहा है किन्तु ठण्ड से मेरा शरीर कांप रहा है । मुनि के इन वचनों को सुन कर यदि वह गृहस्थ अग्नि जला कर साधु के शरीर को ताप 1 देना चाहे तो मुनि उससे कहे कि हे देवानुप्रिय ! स्वयं अग्नि को प्रज्वलित करना और उसके द्वारा शरीर को ताप देना मुझे नहीं कल्पता है इसी प्रकार दूसरों से अग्नि प्रज्वलित करवाना भी मुझे नहीं कल्पता है क्योंकि . अग्निसेवन करना हम साधुओं के आचार के विरुद्ध है । इसलिए मैं अग्नि सेवन नहीं कर सकता हूँ ॥२१०॥ - चतुर्थ उद्देशकः ચોથા ઉદ્દેશામાં આ બતાવે છે કે સ્ત્રી આદિનો પરિષહ ઉત્પન્ન થાય તો સાધુ વૈહાયસ અથવા વૃદ્ધપૃષ્ઠ મરણનો સ્વીકાર કરે અને જો કારણ ન હોય તો તે પ્રમાણે अरे नहीं. तीसरा उद्देशक कहा जा चुका है। अब चौथे उद्देशक में यह बताया जाता है कि स्त्री आदि का परीषह उत्पन्न हो तो साधु वैहायस या गृद्धपृष्ठ मरण को स्वीकार करे और यदि कारण न हो तो वैसा न करे ॥ एष एव शीतस्पर्शाधिकारः परित्राणं च वस्त्रं, तस्योपायाऽऽ सेवनं प्रतिपाद्यते - जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायचउत्थेहिं तस्स णं नो एवं भवइ चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से असणिजाई वत्थाइं जाइज्जा अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं . ५ धारिज्जा, नो धोइज्जा (नो रइज्जा) नो धोयरत्ताइं वत्थाई धारिज्जा, अपलिओवमाणे ( अपलिउंचमाणे) गामंतरेसु ओमचेलिए, एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ॥२११॥ यः स्थविरकल्पितः प्रतिमाप्रतिपन्नो जिनकल्पिको वा भिक्षु त्रिभिर्वस्त्रैः पर्युषितः पात्रचतुर्थैस्तस्य नैवं भवति चतुर्थं वस्त्रं याचिष्यामि । वस्त्रत्रयाऽभावे स यथैषणीयाने वस्त्राणि याचेत, यथा परिगृहीतानि च वस्त्राणि धारयेत्, नो धावेत्, न च धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत् । अन्तप्रान्तत्वात् श्री आचारांग सूत्र ७७७७এএএএ6এ66এএএ७७७०७७ २६३)
SR No.005843
Book TitleAcharang Sutram Pratham Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVikramsenvijay
PublisherBhuvan Bhadrankar Sahitya Prachar Kendra
Publication Year
Total Pages372
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_acharang
File Size9 MB
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