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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
उन्होंने कई बार चर्चा की है। यह सत्य है कि दशवैकालिक की वृत्तियां प्राचीनकाल से ही प्रारम्भ हो चुकी थीं। आचार्य अपराजित जो यापनीय थे, उन्हों ने दशवैकालिक की विजयोदया नामक टीका लिखी थी। १७६ पर यह टीका स्थविर अगस्त्यसिंह के समक्ष नहीं थी । अगस्त्यसिंह ने अपनी चूर्णि में अनेक मतभेद या व्याख्यन्तरों का भी उल्लेख किया है। १७७
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ध्यान का सामान्य लक्षण "एगग्ग चिन्ता -निरोहो झाणं" की व्याख्या में कहा है कि एक आलम्बन की चिन्ता करना, यह छभस्थ का ध्यान है। योग का निरोध केवली का ध्यान है, क्योंकि केवली को चिन्ता नहीं होती। ज्ञानाचरण का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि प्राकृतभाषानिबद्ध सूत्र का संस्कृत रूपान्तर नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यञ्जन में विसंवाद करने पर अर्थ-विसंवाद होता है।
'रात्रिभोजनविरमणव्रत' को मूलगुण माना जाय या उत्तरगुण ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि यह उत्तरगुण ही है किन्तु मूलगुण की रक्षा का हेतु होने से मूलगुण के साथ कहा गया है। वस्त्रपात्रादि संयम और लज्जा के लिए रखे जाते हैं अतः वे परिग्रह नहीं हैं। मूर्च्छा ही परिग्रह है । चोलपट्टकादि का भी उल्लेख है।
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- अनन्तज्ञानी भी गुरु की उपासना अवश्य करे
धर्म की व्यावहारिकता का समर्थन करते हुए कहा है (९।१।११) ।
'देहदुक्खं महाफलं' की व्याख्या में कहा है 'दुक्खं एवं साहिज्जमाणं मोक्खपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं।' बौद्धदर्शन ने चित्त को ही नियंत्रण में लेना आवश्यक माना तो उसका निराकरण करते हुए कहा 'काय का भी नियंत्रण आवश्यक है। '
दार्शनिक विषयों की चर्चाएँ भी यत्र-तत्र हुई हैं। प्रस्तुत चूर्णि में तत्त्वार्थसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, ओघनियुक्ति, व्यवहारभाष्य, कल्पभाष्य आदि ग्रन्थों का भी उल्लेख हुआ है।
दशवैकालिक चूर्णि (जिनदास)
चूर्णि - साहित्य के निर्माताओं में जिनदासगणी महत्तर का मूर्धन्य स्थान है। जिनदासगणी महत्तर के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री अनुपलब्ध है। विज्ञों का अभिमत है कि चूर्णिकार श्री जिनदासगणी महत्तर भाष्यकार श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण के पश्चात् और आचार्य श्री हरिभद्र स्वामी के पहले हुए हैं। क्योंकि भाष्य की अनेक गाथाओं का उपयोग चूर्णियों में हुआ है। आचार्य हरिभद्र सूरिजी ने अपनी वृत्तियों में चूर्णियों का उपयोग किया है। आचार्य जिनदासगणी का समय विक्रम संवत ६५० से ७५० के मध्य होना चाहिए। नंदीचूर्णि के उपसंहार में उसका रचनासमय शक संवत् ५९८ अर्थात् विक्रम संवत् ७३३ है इससे भी यही सिद्ध होता है। आचार्य श्री जिनदासगणी महत्तर की दशवेकालिकनियुक्ति के आधार पर दशवैकालिक चूर्णि लिखी गयी है। यह चूर्णि संस्कृतमिश्रित प्राकृत भाषा में रचित है, किन्तु संस्कृत कम और प्राकृत अधिक है। प्रथम अध्ययन में एकक, काल, द्रुम, धर्म आदि पदों का निक्षेपदृष्टि से चिन्तन किया है। आचार्य शय्यम्भव का जीवनवृत्त भी दिया है। दस प्रकार के श्रमण धर्म, अनुमान के विविध अवयव आदि पर प्रकाश डाला है। द्वितीय अध्ययन में दृढधृतिक के आचार का प्रतिपादन है। उसमें महत्, क्षुल्लक, आचार- दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, वीर्याचार, अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा, मिश्रकथा, अनाचीर्ण आदि का भी विश्लेषण किया गया
है।
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१७६ दशवैकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपञ्चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते ।
भगवती आराधना टीका, विजयोदया गाथा ११९५ १७७ दशवेकालिक अगस्त्यसिंहचूर्णि, २- २९, ३-५, १६-९, २५-५, ६४ ४, ७८-२९, ८१-३४, १०० - २५, आदि ।
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