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श्री दशकालिकसूत्र भाषांतर
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किसी समय एक भिक्ष रुग्ण हो गया। वह बिना जता धारण किये गांव में प्रवेश नहीं कर सकता था। उ देख बुद्ध ने कहा – भिक्षुओं! बीमार भिक्षु को जूता पहनकर गांव में प्रवेश करने की मैं अनुमति देता हूँ।२१ जो भिक्षु पूर्ण निरोग होने पर भी छाता धारण करता है, उसे तथागत बुद्ध ने पाचित्तिय कहा है।२२
इस तरह बुद्ध ने छाता और जूते धारण करने के सम्बन्ध में विधि और निषेध दोनों बताये हैं।
दीघनिकाय में तथागत बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए माला, गंध-विलेपन, उबटन तथा सजने-सजाने का निषेध किया है।२३
मनस्मति.२४ श्रीमदभागवत२५ आदि में ब्रह्मचारी के लिए गंध, माल्य, उबटन, अंजन, जूते और छत्र धारण का निषेध किया है। भागवत में वानप्रस्थ के लिए दातुन करने का भी निषेध है।२६
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं ने श्रमण और संन्यासी के लिए कष्ट सहन करने का विधान एवं शरीर-परिकर्म का निषेध किया है। यह सत्य है कि ब्राह्मण परम्परा ने शरीर-शुद्धि पर बल दिया तो जैन परम्परा ने आत्म-शुद्धि पर बल दिया। यहाँ पर सहज जिज्ञासा हो सकती है कि आयुर्वेदिक ग्रन्थों में जो बातें स्वास्थ्य के लिए आवश्यक मानी हैं उन्हें शास्त्रकार ने अनाचार क्यों कहा है? समाधान है कि श्रमण शरीर से भी आत्म-शुद्धि पर अधिक बल दे। स्वास्थ्यरक्षा से पहले आत्म-रक्षा आवश्यक है "अप्पा हु खलु सययं रक्खियव्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं" श्रमण सब इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त कर आत्मा की रक्षा करे। ने आत्मरक्षा पर अधिक बल दिया है, जबकि चरक और सुश्रुत ने देहरक्षा पर अधिक बल दिया है। उनका यह स्पष्ट मन्तव्य रहा कि नगररक्षक नगर का ध्यान रखता है, गाड़ीवान गाड़ी का ध्यान रखता है, वैसे ही विज्ञ मानव शरीर का पूर्ण ध्यान रखे।
सौवीरांजन आदि स्वास्थ्य दृष्टि से चरक संहितादि में उपयोगी बताये वे ही आत्मा की दृष्टि से आगम साहित्य में श्रमणों के लिए निषिद्ध कहे हैं।२८
नियुक्तिकार की दृष्टि से दशवकालिक का तृतीय अध्ययन नौवें पूर्व की तृतीय आचारवस्तु से उद्धृत
२१ विनयपिटक, पृ. २११ • २२ विनयपिटक, पृ. ५७
२३ दीघनिकाय, पृ. ३ २४ मनुस्मृति २।१७७-१७९ २५ अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं मधु।
सुगन्धलेपालंकारांस्त्यजेयुयें धृतव्रताः।। -भागवत ७।१२।१२ २६ केशरोमनखश्मश्रुमलानि विभृयादतः।
न धावेदप्सु मज्जेत त्रिकालं स्थण्डिलेशयः।। - भागवत ११।१८।३ २७ नगरी नगरस्येव, रथस्येव रथी सदा।।
स्वशरीरस्य मेधावी, कृत्येष्ववहिते भवेत्।। -चरकसंहिता, सूत्रस्थान अध्ययन ५/१०० २८ सूत्रकृतांग १।९।१२, १३ से १८, २०, २१, २३, २९ २९ अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ। -नियुक्ति गाथा १७