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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
उसमें न तो ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न होती है और न अन्य किसी भी प्रकार की विराधना की ही संभावना है। इसलिए वह अनाचार नहीं है। १६ जो कार्य सौंदर्य कि दृष्टि से शोभा या गौरव की दृष्टि से किए जायें वे अनाचार हैं पर वे कार्य भी रुग्णावस्था आदि विशेष परिस्थिति में किये जायें तो अनाचार नहीं हैं। उदाहरण के रूप में नेत्र रोग होने पर अंजन आदि का उपयोग। कितने ही अनाचारों के सेवन में प्रत्यक्ष हिंसा है, कितने ही अनाचारों के सेवन से वे हिंसा के निमित्त बनते हैं और कितने ही अनाचारों के सेवन में हिंसा का अनुमोदन होता है, कितने ही कार्य स्वयं में दोषपूर्ण नहीं हैं किन्तु बाद में वे कार्य शिथिलाचार के हेतु बन सकते हैं, अतः उनका निषेध किया गया है । इस प्रकार अनेक हेतु अनाचार के सेवन में रहे हुए हैं।
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जैन परम्परा में जो आचारसंहिता है, उसके पीछे अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का दृष्टिकोण प्रधान है। अन्य भारतीय परम्पराओं ने भी न्यूनाधिक रूप से उसे स्वीकार किया है।
स्मान
तथागत बुद्ध ने पन्द्रह दिन से पहले जो भिक्षु स्नान करता है उसे प्रायश्चित का अधिकारी माना है। यदि कोई भिक्षु विशेष परिस्थिति में पन्द्रह दिन से पहले नहाता है तो पाचित्तिय है। विशेष परिस्थिति यह है के पीछे के डेढ़ मास और वर्षा का प्रथम मास, यह ढाई मास और गर्मी का समय, जलन होने का समय, समय, काम (लीपने-पोतने आदि का समय) रास्ता चलने का समय तथा आंधी-पानी का समय । १७
- ग्रीष्म रोग का
भगवान् महावीर की भांति तथागत बुद्ध की आचारसंहिता कठोर नहीं थी । कठोरता के अभाव से भिक्षु स्वच्छन्दता से नियमों का भंग करने लगे, तब बुद्ध ने स्नान के सम्बन्ध में अनेक नियम बनाये।
एक बार तथागत बुद्ध राजगृह में विचरण कर रहे थे। उस समय षड्वर्गीय भिक्षु न्हाते हुए शरीर को वृक्ष गड़ते थे। जंघा, बाहु, छाती और पेट को भी। जब भिक्षुओं को इस प्रकार कार्य करते हुए देखते तो लोग खिन्न होते, धिक्कारते।
तथागत ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया - 'भिक्षुओं! नहाते हुए भिक्षु को वृक्ष से शरीर को न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको 'दुष्कृत' की आपत्ति है।'
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• उस समय षड्वर्गीय भिक्षु नहाते समय खम्भे से शरीर को भी रगड़ते थे। बुद्ध ने कहा - 'भिक्षुओं! नहाते समय भिक्षु को खम्भे से शरीर को न रगड़ना चाहिए, जो रगड़े उसको दुक्कड (दुष्कृत) की आपत्ति है । १८ छाता - जूता
विनय-पिटक में जूते, खड़ाऊ, पादुका प्रभृति विधि - निषेधों को सम्बन्ध में चर्चाएं हैं। १९ उस समय षड्वर्गीय भिक्षु जूता धारण करते थे। वे जब जूता धारण कर गांव में प्रवेश करते, तो लोग हैरान होते थे। जैसे काम - भोगी गृहस्थ हों। ने कहा बुद्ध -'भिक्षुओं! जूता पहने गांव में प्रवेश नहीं करना चाहिए । जो प्रवेश करता है, उसे दुक्कड दोष है। '२०
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१६ तिन्हमंन्त्रयरागस्स निसेज्जा जस्स कप्पइ । जराए अभिभूयस्स वाहियस्स तवस्सिणो ।। - दशवैकालिक ६/५९ १७ विनयपिटक, पृ. २७, अनु. राहुल सांकृत्यायन, प्र. महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस)
१८ विनयपिटक, पृ. ४१८
१९ विनयपिटक, पृ. २०४ - २०८
२० विनयपिटक, पृ. २११