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'श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
'मधुकर' का रूपक देकर यह बताया है कि जैसे मधुकर पुष्पों से रस ग्रहण करता है वैसे ही श्रमणों को गृहस्थों के यहाँ से प्रासुक आहार-जल ग्रहण करना चाहिए। मधुकर फूलों को बिना म्लान किए थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, जिससे उसकी उदरपूर्ति हो जाए। मधुकर दूसरे दिन के लिए संग्रह नहीं करता, वैसे ही श्रमण संयमनिर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ग्रहण करता है, किन्तु संचय नहीं करता। मधुकर विविध फूलों से रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण विविध स्थानों से शिक्षा लेता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में अहिंसा और उसके प्रयोग का निर्देश किया गया है।
भ्रमर की उपमा जिस प्रकार दशवैकालिक में श्रमण के लिए दी गयी है, उसी प्रकार भाव साहित्य में भी यह उपमा प्राप्त है। और वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी इस उपमा का उपयोग हुआ है।
संयम में श्रम करने वाला साधक श्रमण की अभिधा से अभिहित है। श्रमण का भाव श्रमणत्व या श्रामण्य कहलाता है। बिना धृति के श्रामण्य नहीं होता, धृति पर ही श्रामण्य का भव्य प्रासाद अवलम्बित है। जो धृतिमान् होता है, वही कामराग का निवारण करता है। यदि अन्तर्मानस में कामभावनाएं अंगड़ाइयाँ ले रही हैं, विकारों के सर्प फन फैलाकर फूत्कारें मार रहे हैं, तो वहाँ श्रमणत्व नहीं रह सकता। रथनेमि की तरह जिसका मन विकारी है और विषयसेवन के लिए ललक रहा है वह केवल द्रव्यसाधु है, भावसाधु नहीं। इस प्रकार के श्रमण भर्त्सना के योग्य हैं। जब रथनेमि भटकते हैं और भोग की अभ्यर्थना करते हैं तो राजीमती संयम में स्थिर करने हेतु उन्हें धिक्कारती है। काम और श्रामण्य का परस्पर विरोध है, जहाँ काम है, वहाँ श्रामण्य का अभाव है। त्यागी वह कहलाता है -जो स्वेच्छा से भोगों का परित्याग करता है। जो परवशता से भोगों का त्याग करता है, उसमें वैराग्य का अभाव होता है, वहाँ विवशता है, त्याग की उत्कट भावना नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में कहा गया है - जीवन वह है जो विकारों से मुक्त हो। यदि विकारों का धुंआ छोड़ते हुए अर्ध-दग्ध कण्डे की तरह जीवन जीया जाए तो उस जीवन से तो मरना ही श्रेयस्कर है। एक क्षण भी जीओ - प्रकाश करते हुए जीओ किन्तु चिरकाल तक धुंआ छोड़ते हुए जीना उचित नहीं। अगन्धन जाति का सर्प प्राण गँवा देना पसन्द करेगा किन्तु परित्यक्त विष को पुनः ग्रहण नहीं करेगा। वैसे ही श्रमण परित्यक्त भोगों को पुनः ग्रहण नहीं करता है। इस अध्ययन में भगवान् अर्हत् अरिष्टनेमि के भ्राता रथनेमि का प्रसंग है जो गुफा में ध्यानमुद्रा में अवस्थित हैं, उसी गुफा में वर्षा से भीगी हुई राजीमती अपने भीगे हुए वस्त्रों को सुखाने लगी, राजीमती के अंग-प्रत्यंगों को निहारकर रथनेमि के भाव कलुषित हो गये। राजीमती ने कामविह्वल रथनेमि को सुभाषित वचनों से संयम में सुस्थिर कर दिया। नियुक्तिकार का अभिमत है कि द्वितीय अध्ययन की विषय-सामग्री प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय वस्तु से ली गयी है।२ विषवन्त जातक में इसी प्रकार का एक प्रसंग आया है - सर्प आग में प्रविष्ट हो जाता है किन्तु एक बार छोड़े हुए विष को पुनः ग्रहण नहीं करता।३
१० धम्मपद ४/६ ११ यथामधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः।
तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्याद् अविहिंसया।। -महाभारत, उद्योग पर्व, ३४/१७ १२ सच्चप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ।
अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ।। -नियुक्ति गाथा १७ १३ धिरत्थु तं विसं वन्तं, यमहं जीवितकारणा। . वन्तं पच्चावमिस्सामि, मतम्मे जीविता वरं ।। - जातक, प्रथम खण्ड, पृ. ४०४