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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
दश वैकालिक एक समीक्षात्मक अध्ययन
'आचार्य देवेन्द्र मुनि'
(इनके द्वारा ४-५-८४ को लिखी हुई प्रस्तावना में से यह मेटर साभार लिया गया है। जो इस सूत्र की महत्त्वता को विशेष उजागर करता है | )
धर्म एक चिंतन :
दश वैकालिक का प्रथम अध्ययन द्रुम पुष्पिका है।
धर्म क्या है? यह चिर चिन्त्य प्रश्न रहा है । इस प्रश्न पर विश्व के मूर्धन्य मनीषियों ने विविध दृष्टियों से चिन्तन किया है। आचारांग में स्पष्ट कहा है कि तीर्थंकर की आज्ञाओं के पालन में धर्म है।' मीमांसा दर्शन के अनुसार वेदों की आज्ञा का पालन ही धर्म है।' आचार्य मनु ने लिखा है- राग-द्वेष से रहित सज्जन विज्ञो द्वारा जो आचरण किया जाता है और जिस आचरण को हमारी अन्तरात्मा सही समझती है, वह आचरण धर्म है। महाभारत में धर्म की परिभाषा इस प्रकार प्राप्त है - जो प्रजा को धारण करता है अथवा जिससे समस्त प्रजा यानि समाज का संरक्षण होता है, वह धर्म है। आचार्य शुभचंद्र ने धर्म को भौतिक और अध्यात्मिक अभ्युदय का साधन माना है । " आचार्य कार्तिकेय ने वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है, जिससे स्वभाव में अवस्थिति और विभाव दशा का परित्याग होता है। चूंकि स्व-स्वभाव से ही हमारा परम श्रेय सम्भव है और इस दृष्टि से वही धर्म है। धर्म का लक्षण आत्मा का जो विशुद्ध स्वरूप है और जो आदि-मध्य-अन्त सभी स्थितियों में कल्याणकारी है वैशेषिक दर्शन का मन्तव्य है - जिससे अभ्युदय और निश्रेयस् की सिद्धि होती है - वह धर्म है। '
- वह धर्म है। "
इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने धर्म की विविध दृष्टियों से व्याख्या की है, तथापि उनकी यह विशेषता रही है कि उन्होंने किसी एकाकी परिभाषा पर ही बल नहीं दिया, किन्तु धर्म के विविध पक्षों को उभारते हुए उनमें समन्वय की अन्वेषणा की है। यही कारण है कि प्रत्येक परम्परा धर्म की विविध व्याख्याएँ मिलती हैं। दशवैकालिक में धर्म की सटीक परिभाषा दी गयी है। - -अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। वही धर्म उत्कृष्ट मंगल रूप में परिभाषित किया गया है। वह धर्म विश्व-कल्याणकारक है।' इस प्रकार लोक-मंगल की साधना में व्यक्ति के दायित्व की व्याख्या यहाँ पर की गयी है। जिसका मन धर्म में रमा रहता है, उसके चरणों में ऐश्वर्यशाली देव भी नमन करते हैं।
धर्म की परिभाषा के पश्चात् अहिंसक श्रमण को किस प्रकार आहार ग्रहण करना चाहिए, इसके लिए
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५ अमोलकसूक्तिरत्नाकर, पृष्ठ २७
६ कार्तिकेय - अनुप्रेक्षा, ४७८
७ अभिधान राजेन्द्र कोष, खण्ड ४, पृष्ठ २६६९
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । - - वैशेषिक दर्शन १/१/२
(क) दशवेकालिक १/१
(ख) योगशास्त्र ४ / १००
आचारांग १/६/२/१८१
मीमांसा दर्शन १/१/२
मनुस्मृति २/१
महाभारत कर्ण पर्व ६९/५९