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श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २
परिशिष्ट
माप में कितने प्रदेशों की राशि समाई हुई है। उसका सम्बन्ध जगश्रेणी से जगप्रतर एवं घनलोक से भी है। .
आपने संदर्भित गाथा के विषयों की व्याख्या करते हुए रज्जु का अर्थ विश्व माप की इकाई लिखा है।
वस्तुतः उस स्थिति में जबकि व्यवहार के ८ भेदों में से एक भेद क्षेत्र-व्यवहार भी है और उसमें ज्यामिति का विषय समाहित हो जाता है एवं खात, चिति, राशि एवं क्राकचिक, व्यवहार के अन्तर्गत मेन्शुरेशन (Mensuration) का विषय भी आ जाता है। तब क्षेत्रगणित के लिये स्वतन्त्र अध्याय की इतनी आवश्यकता नहीं रह गई जितनी लोक के प्रमाण विस्तार आदि से सम्बद्ध जटिलताओं, असंख्यात विषयक राशियों के गणित से सम्बन्धित विषय की। इन विषयों का व्यापक एवं व्यवस्थित विवेचन जैन ग्रन्थों में मिलता है। जबकि यह अन्य किसी समकालीन ग्रन्थ में नहीं मिलता। विविध धार्मिक-अर्द्धधार्मिक जैन विषयों के स्पष्टीकरण में इनकी अपरिहार्य आवश्यकता करणानुयोग अथवा द्रव्यानुयोग के किसी भी ग्रन्थ में देखी जा सकती है। एतद्विषयक गणित की जैन जगत में प्रतिष्ठा का आकलन इस बात से भी किया जा सकता है कि हेमराज ने संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त विषयक गणित पर १७वीं शताब्दी में गणितसार नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की। असंख्यात एवं अनन्त के जटिल विषयों को परिकर्म के अन्तर्गत मानना किंचित् भी उचित नहीं, क्योंकि परिकर्म में तो गणित (लौकिक गणित) की मूलभूत क्रियायें आती हैं।
रज्ज. पल्य आदि की गणना सामान्य परिकर्मों से असंभव है।
घनांगुल, जगश्रेणी एवं पल्य को अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त करने परपल्योपम के अर्हच्छेद असंख्यात
जगश्रेणी = ७ राजू = घनांगुल यदि पल्योपम p हो तो log2p/असंख्यात राजू = 1/7 घनांगुल
स्पष्टतः राजू (रज्जु) एक असंख्यात राशि हुई। असंख्यात संकेन्द्री वलयाकार वृत्तों की शृंखला में अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप का व्यास रज्जु बताया गया है। फलतः इस विधि से भी इसका मान असंख्यात ही मिलता है।
प्रो० घासीराम जैन ने आइंस्टीन के विवादास्पद संख्यात फैलने वाले लोक की त्रिज्या के आधार से प्राप्त घनफल की लोक के आयतन से तुलना करके रज्जु (राज) का मान प्राप्त किया। यह मान
१.४५ x १०२९ मील एवं १.६३ x १०९ मील है। एक अन्य रीति से यह मान १.१५ X १०९ मील प्राप्त होता है।
किन्तु घासीराम जैन द्वारा उद्धृत मान अपूर्ण है, क्योंकि ये सभी कल्पनाओं एवं अभिधारणाओं पर आश्रित हैं। रज्जु को तो असंख्यात रूप में ही स्वीकार करना उपयुक्त है। यह स्वीकार करने में किंचित् भी संकोच नहीं होना चाहिए कि रज्जु शुल्व काल के तुरन्त बाद से भारतीय गणित में क्षेत्रगणित के सन्दर्भ में आया है। भले ही वह मापने वाली रस्सी रहा हो या मापन क्रिया। यह शब्द रेखागणित तथा त्रिभुज, चतुर्भुज की चारों भुजाओं के योग के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। तथापि यह आवश्यक नहीं है कि यह इस गाथा या सिद्धान्त ग्रन्थों में भी 1. देखें सं०-८, पृ० ४५ । 2. देखें सं०-६, पृ० २२-२३ । 3. देखें सं०-५, पृ० ९२ । 4. देखें सं०-११, पृ० २१५, २१६ । .
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