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परिशिष्ट
श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ शाङ्गदेव कहते हैं - षड्जग्राम नामक राग षड्जमध्यमा जाति से उत्पन्न सम्पूर्ण राग है। इसका ग्रह एवं अंशस्वर तार षड्ज है, न्यासस्वर मध्यम है, अपन्यासस्वर षड्ज है, अवरोही और प्रसन्नान्त अलंकार इसमें प्रयोज्य हैं। इसकी मूर्च्छना षड्जादि (उत्तरमन्द्रा) है। इसमें काकली - निषाद एवं अन्तर - गान्धार का प्रयोग होता है; वीर, रौद्र, अद्भुत रसों में नाटक की सन्धि में इसका विनियोग है। इस राग का देवता बृहस्पति है और वर्षाऋतु में, दिन के प्रथम प्रहर में, यह गेय हैं। 1 यह शुद्ध राग है।
मध्यमग्राम इसमें 'ऋषभ - पञ्चम', 'ऋषभ - धैवत', 'गान्धार - निषाद' और 'षड्ज - मध्यम' परस्पर संवादी हैं। शार्ङ्गदेव का विधान है कि मध्यमग्राम राग का विनियोग हास्य एवं श्रृंगार में है। यह राग गान्धारी, मध्यमा और पञ्चमी जातियों से मिलकर उत्पन्न हुआ है।
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काली - निषाद का प्रयोग इसमें विहित है। इस राग का अंश-ग्रह-स्वर मन्द्र षड्ज, न्याय - स्वर मध्यम और मूर्च्छना 'सौवीरी' है। प्रसन्नादि और अवरोही के द्वारा मुखसन्धि में इसका विनियोग है। यह राग ग्रीष्म ऋतु
प्रथम प्रहर में गाया जाता है। 2 महर्षि भरत ने सात शुद्ध रागों में इसे गिना है। इसमें षड्जस्वर चतुःश्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम त्रिश्रुति, धैवत चतुःश्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है।
गान्धार ग्राम महर्षि भरत ने इसकी कोई चर्चा नहीं की है। उन्होंने केवल दो ग्रामों को ही माना है। कुछ आचार्यों ने गान्धार ग्राम और तज्जन्य रागों का वर्णन करके लौकिक विनोद के लिए भी उनके प्रयोग का विधान किया है। 3
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परन्तु अन्य आचार्यों ने लौकिक विनोद के लिए ग्रामजन्य रागों का प्रयोग निषिद्ध बतलाया है। 4 नारद की सम्मति के अनुसार गान्धारग्राम का प्रयोग स्वर्ग में ही होता है।' इसमें षड्ज स्वर त्रिश्रुति, ऋषभ द्विश्रुति, गान्धार चतुःश्रुति, मध्यम - पञ्चम और धैवत त्रि-त्रिश्रुति और निषाद चतुःश्रुति होता है । गान्धार ग्राम का वर्णन केवल संगीतरत्नाकर या उसके आधार पर लिखे गये ग्रन्थों में है।
इस ग्राम के स्वर बहुत टेढ़े-मेढ़े हैं अतः गाने में बहुत कठिनाइयां आती हैं। इसी दुरूहता के कारण 'इसका प्रयोग स्वर्ग में होता है' ऐसा कह दिया गया है।
वृत्तिकार के अनुसार 'मंगी' आदि इक्कीस प्रकार की मूर्च्छनाओं के स्वरों की विशद व्याख्या पूर्वगत के स्वर - प्राभृत में थी । वह अब लुप्त हो चुका है। इस समय इनकी जानकारी उसके आधार पर निर्मित भरतनाट्य, वैशाखिल आदि ग्रन्थों से जाननी चाहिए ।
१७-१९ मूर्च्छना (सू. ४५-४७) इसका अर्थ है - सात स्वरों का क्रमपूर्वक आरोह और अवरोह । महर्षि भरत ने इसका अर्थ सात स्वरों का क्रमपूर्वक प्रयोग किया है। मूर्च्छना समस्त रागों की जन्मभूमि है। यह चार प्रकार की होती है। -
१. पूर्णा, २. षाडवा, ३. औडुविता, ४. साधारणा । 7
अथवा- १. शुद्धा, २. अंतरसंहिता, ३. काकलीसंहिता, ४. अन्तरकाकलीसंहिता ।
तीन सूत्रों (४५, ४६, ४७) में षड्ज आदि तीन ग्रामों की सात-सात मूर्च्छनाएं उल्लिखित हैं।
1. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ २६ - २७ ।। 2. संगीतरत्नाकर ( अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ ५६ ।। 3. प्रो. रामकृष्ण कवि, भरतकोश, पृष्ठ ५४२ । 4. प्रो. रामकृष्ण कवि, भरतकोश, पृष्ठ ५४२ । 5. वही, पृष्ठ ५४२ । 6. संगीतरत्नाकर, स्वर प्रकरण, पृष्ठ १०३, १०४ ।। 7. वही, पृष्ठ ११४ ।। 8 भरत अध्याय २८, पृष्ठ ४३५ ।।
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