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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना
छट्टे स्थान में छह की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन किया है। यह स्थान उद्देशकों में विभक्त' नहीं है। इसमें तात्त्विक, दार्शनिक, ज्योतिष और संघ - सम्बन्धी अनेक विषय वर्णित हैं। जैन दर्शन में षट्द्रव्य का निरूपण है। इनमें पाँच अमूर्त हैं और एक - पुद्गल द्रव्य मूर्त्त हैं।
गण को वह अनगार धारण कर सकता है जो छह कसौटियों पर खरा उतरता हो - १. श्रद्धाशील पुरुष, २. सत्यवादी पुरुष, ३. मेधावी पुरुष, ४. बहुश्रुत पुरुष, ५. शक्तिशाली पुरुष, ६. कलहरहित पुरुष ।
जाति से आर्य मानव छह प्रकार का होता है । अनेक अनछुए पहलुओं पर भी चिन्तन किया गया है। जाति और कुल आर्य चिन्तन आर्य की एक नयी परिभाषा प्रस्तुत की है । इन्द्रियों से जो सुख प्राप्त होता है. वह अस्थायी और क्षणिक है, यथार्थ नहीं। जिन इन्द्रियों से सुखानुभूति होती है, उन इन्द्रियों से परिस्थितिपरिवर्तन होने पर दुःखानुभूति भी होती है। इसलिए इस स्थान में सुख और दुःख के छह-छह प्रकार बताये हैं ।
मानव को कैसा भोजन करना चाहिए? जैन दर्शन ने इस प्रश्न का उत्तर अनेकान्तदृष्टि से दिया है। जो भोजन साधना की दृष्टि से विघ्न उत्पन्न करता हो, वह उपयोगी नहीं है और जो भोजन साधना के लिए सहायक बनता है, वह भोजन उपयोगी है। इसलिये श्रमण छह कारणों से भोजन कर सकता है और छह कारणों से भोजन का त्याग कर सकता है। भूगोल, इतिहास, लोकस्थिति, कालचक्र, शरीर रचना आदि विविध विषयों का इसमें संकलन हुआ है।
सातवें स्थान में सात की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन है। इसमें उद्देशक नहीं हैं। जीवविज्ञान, लोकस्थिति, संस्थान, नय, आसन, चक्रवर्ती रत्न, काल की पहचान, समुद्घात, प्रवचननिह्नव, नक्षत्र, विनय के प्रकार आदि अनेक विषय हैं। साधना के क्षेत्र में अभय आवश्यक है। जिसके अन्तर्मानस में भय का साम्राज्य हो, वह अहिंसक नहीं बन सकता। भय के मूल कारण सात बताये हैं। मानव से जो भय होता है, वह इहलोक भय है। आधुनिक युग में यह भय अत्यधिक बढ़ गया है, आज सभी मानवों के हृदय धड़क रहे हैं। इसमें सात कुलकरों का भी वर्णन है, जो आदि युग में अनुशासन करते थे । अन्यान्य ग्रन्थों में कुलकरों के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। उनके मूलबीज यहाँ रहे हुये हैं। स्वर, स्वरस्थान और स्वरमण्डल का विशद वर्णन है। अन्य ग्रन्थों में आये हुए इन विषयों की सहज ही तुलना की जा सकती है।
आठवें स्थान में आठ की संख्या से सम्बन्धित विषयों को संकलित किया गया है। इस स्थान में जीवविज्ञान, कर्मशास्त्र, लोकस्थिति, ज्योतिष, आयुर्वेद, इतिहास, भूगोल आदि के सम्बन्ध में विपुल सामग्री संकलन हुआ है।
साधना के क्षेत्र में संघ का अत्यधिक महत्त्व रहा है। संघ में रहकर साधना सुगम रीति से संभव है। एकाकी साधना भी की जा सकती है। यह मार्ग कठिनता को लिए हुए है। एकाकी साधना करने वाले में विशिष्ट योग्यता अपेक्षित है। प्रस्तुत स्थान में सर्वप्रथम उसी का निरूपण है। एकाकी रहने के लिए वे योग्यताएँ अपेक्षित हैं। काश! आज एकाकी विचरण करने वाले श्रमण इस पर चिन्तन करें तो कितना अच्छा हो ।
साधना के क्षेत्र में सावधानी रखने पर भी कभी-कभी दोष लग जाते हैं । किन्तु माया के कारण उन दोनों की विशुद्धि नहीं हो पाती। मायावी व्यक्ति के मन में पाप के प्रति ग्लानि नहीं होती और न धर्म के प्रति दृढ़ होती है । माया को शास्त्रकारों ने "शल्य" कहा है। वह शल्य के समान सदा चुभती रहती है। माया से स्नेह-सम्बन्ध टूट जाते हैं। आलोचना करने के लिए शल्य-रहित होना आवश्यक है । प्रस्तुत स्थान में विस्तार से उस पर चिन्तन किया गया है। गणि-सम्पदा, प्रायश्चित्त के भेद, आयुर्वेद के प्रकार, कृष्णराजिपद, काकिणिरत्नपद,
आस्था
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