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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना
कर रहे थे। संघ ने आगम-निधि की सुरक्षा के लिए श्रमणसंघाटक को नेपाल प्रेषित किया। श्रमणों ने भद्रबाहु से प्रार्थना की-'आप वहाँ पधारकर श्रमणों को दृष्टिवाद की ज्ञान-राशि से लाभान्वित करें।' भद्रबाहु ने साधना में विक्षेप समझते हुए प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया।
"तित्थोगालिय" के अनुसार भद्रबाहु ने आचार्य होते हुए भी संघ के दायित्व से उदासीन होकर कहा'श्रमणो! मेरा आयुष्य काल कम रह गया है। इतने स्वल्प समय में मैं दृष्टिवाद की वाचना देने में असमर्थ हूँ।
आत्महितार्थ मैं अपने आपको समर्पित कर चका हँ। अतः संघ को वाचना देकर क्या करना है?2 इस निराशाजनक उत्तर से श्रमण उत्तप्त हुए। उन्होंने पुनः निवेदन किया-'संघ की प्रार्थना को अस्वीकार करने पर आपको क्या प्रायश्चित्त लेना होगा?'3 ___आवश्यकचूर्णि' के अनुसार आये हुये श्रमण-संघाटक ने कोई नया प्रश्न उपस्थित नहीं किया, वह पुनः लौट गया। उसने सारा संवाद संघ को कहा। संघ अत्यन्त विक्षुब्ध हुआ। क्योंकि भद्रबाहु के अतिरिक्त दृष्टिवाद की वाचना देने में कोई भी समर्थ नहीं था। पुनः संघ ने श्रमण-संघाटक को नेपाल भेजा। उन्होंने निवेदन कियाभगवन्! संघ की आज्ञा की अवज्ञा करने वाले को क्या प्रायश्चित्त आता है? प्रश्न सुनकर भद्रबाहु गम्भीर हो गये। उन्होंने कहा-जो संघ का अपमान करता है, वह श्रुतनिह्नव है। संघ से बहिष्कृत करने योग्य है। श्रमण-संघाटक
नवेदन किया-आपने भी संघ की बात को अस्वीकृत किया है. आप भी इस दण्ड के योग्य हैं? "तित्थोगालिय'' में प्रस्तुत प्रसंग पर श्रमण-संघ के द्वारा बारह प्रकार के संभोग विच्छेद का भी वर्णन है। ___आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी को अपनी भूल का परिज्ञान हो गया। उन्होंने मधुर शब्दों में कहा-मैं संघ की आज्ञा का सम्मान करता हूँ। इस समय मैं महाप्राण की ध्यान-साधना में संलग्न हूँ। प्रस्तुत ध्यान साधना से चौदह पूर्व की ज्ञान-राशि का मुहूर्त मात्र में परावर्तन कर लेने की क्षमता आ जाती है। अभी इसकी सम्पन्नता में कुछ समय अवशेष है। अतः मैं आने में असमर्थ हूँ। संघ प्रतिभासम्पन्न श्रमणों को यहाँ प्रेषित करे। मैं उन्हें साधना के साथ ही वाचना देने का प्रयास करूंगा।
"तित्थोगालिय''6 के अनुसार भद्रबाहु ने कहा-मैं एक अपवाद के साथ वाचना देने को तैयार हूं। आत्महितार्थ, वाचना ग्रहणार्थ आने वाले श्रमण-संघ में बाधा उत्पन्न नहीं करूंगा। और वे भी मेरे कार्य में बाधक न बनें। कायोत्सर्ग सम्पन्नकर भिक्षार्थ आते-जाते समय और रात्रि में शयन-काल के पूर्व उन्हें वाचना प्रदान करता रहूंगा। "तथास्तु" कह वन्दनकर वहाँ से वे प्रस्थित हुये। संघ को संवाद सुनाया।
संघ ने महान मेधावी उद्यमी स्थूलभद्रजी आदि को दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए प्रेषित किया। परिशिष्ट पर्व' के अनुसार पाँच सौ शिक्षार्थी नेपाल पहुंचे थे। 'तित्थोगालिय' के अनुसार श्रमणों की संख्या पन्द्रह सौ थी। 1. नेपालवत्तणीए य भद्दबाहुसामी अच्छंति चौद्दसपुवी। -आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पृ. १८७ 2. सो भणिए एव भाणिए, असिट्ट किलिट्ठएणं वयणेणं । न हु ता अहं समत्थो, इण्हिं मे वायणं दाउं । अप्पटे आउत्तस्स मज्झ किं वायणाए कायव्वं । एवं च भणियमेत्ता रोसस्स वसं गया साहू ।। -तित्थोगाली-गाथा २८, २९ 3. भवं भणंतस्स तुहं को दंडो होई तं मुणसु। -तित्थोगाली 4. तं ते भणंति दुक्कालनिमित्तं महापाणं पविट्ठोमि तो न जाति वायणं दातुं। -आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पत्रांक १८७ 5. तेहिं अण्णोवि संघाडओ विसज्जितो, जो संघस्स आणं-अतिक्कमति तस्स को दंडो? तो अक्खाई उग्घाडिज्जई। ते भणंति मा उग्घाडेह, पेसेह मेहावी, सत्त पडिपुच्छगाणि देमि। -आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पत्रांक १८७ 6. एक्केण कारणेणं, इच्छं भे वायणं दाउं । अप्पटे आउत्तो, परमढे सुद्ध दाइं उज्जुत्तो । न वि अहं वायरियव्वो, अहंपि नवि वायरिस्सामि ।। पारियकाउस्सग्गो, भत्तद्वित्तो. व अहव सेज्जाए। निंतो व अइंतो वा एवं भे वायणं दाहं ।। -तित्थोगाली, गाथा ३५, ३६ 7. परिशिष्ट पर्व, सर्ग ९ गाथा ७० 8. तित्थोगाली
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