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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ जीवों की सूक्ष्मता, , पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक दृष्टि से भी जीवों के भेद-प्रभेद प्रतिपादित हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक जितने भी जीव हैं, वे समूर्च्छिम हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य ये गर्भज और संमूर्च्छिम दोनों प्रकार के होते हैं। नारक और देव का जन्म उपपात है। संमूर्च्छिम और नरक के जीव एकान्त रूप से नपुंसक होते हैं। देवों में स्त्री और पुरुष दोनों होते हैं, नपुंसक नहीं होते। गर्भज मनुष्य और गर्भज तियंच में तीनों लिंग होते हैं। इस तरह लिंगभेद की दृष्टि से जीवों के भेद किये गये हैं। नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति, ये भेद गति की दृष्टि से किये गये हैं। पाँच भरत, पाँच ऐरवत और पाँच महाविदेह - ये पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं । यहाँ के मानव कर्म करके अपना जीवनयापन करते हैं, एतदर्थ इन भूमियों में उत्पन्न मानव कर्मभूमिज कहलाते हैं। कर्मभूमिज मनुष्य के भी आर्य और म्लेच्छ ये दो प्रकार हैं। आर्य मनुष्य के भी ऋद्धिप्राप्त व अनृद्धिप्राप्त ये दो प्रकार हैं। प्रज्ञापना में ऋद्धिप्राप्त आर्य के अरिहन्त, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, चारण और विद्याधर यह छ: प्रकार बताये हैं। तत्त्वार्थवार्तिक में ऋद्धिप्राप्त आर्य के बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और क्षेत्र, ये आठ प्रकार बतलाये हैं। प्रज्ञापना में अनृद्धिप्राप्त आर्य के क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, कर्मार्य, शिल्पार्य, भाषार्य, ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य ये नौ प्रकार बतलाये हैं। तत्त्वार्थवार्तिक में अनृद्धिप्राप्त आर्यों के क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य ये पांच प्रकार प्ररूपित हैं। तत्त्वार्थभाष्य में अनृद्धिप्राप्त आर्यों के क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, शिल्पार्य, कर्मार्य एवं भाषार्य ये छ: प्रकार उल्लिखित हैं।" प्रज्ञापना की दृष्टि से साढ़े पच्चीस देशों में रहने वाले मनुष्य क्षेत्रार्य हैं। इन देशों में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव उत्पन्न हुए, इसलिए इन्हें आर्य जनपद कहा है। प्रवचनसारोद्धार में भी आर्य की यही परिभाषा दी गयी है। जिनदासगणी महत्तर ने लिखा है कि जिन प्रदेशों में युगलिक रहते थे, जहाँ पर हाकार आदि नीतियों का प्रवर्त्तन हुआ था, वे प्रदेश आर्य हैं और शेष अनार्य।' इस दृष्टि से आर्य जनपदों की सीमा बढ़ जाती है । तत्त्वार्थभाष्य में लिखा है कि चक्रवर्ती विजयों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य भी आर्य होते हैं।" तत्त्वार्थवार्तिक में काशी, कौशल प्रभृति जनपदों में उत्पन्न मनुष्यों को क्षेत्रार्य कहा है।" इसका अर्थ यह है कि बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान और पंजाब तथा पश्चिमी पंजाब एवं सिन्ध, ये कोई पूर्ण तथा कोई अपूर्ण प्रान्त आर्यक्षेत्र में थे और शेष प्रान्त उस सीमा में नहीं थे। दक्षिणापथ आर्यक्षेत्र की सीमा में नहीं था। उत्तर भारत में आर्यों का वर्चस्व था, संभवत: इसी दृष्टि से सीमानिर्धारण किया गया हो। प्रज्ञापना में साढ़े पच्चीस देशों की जो सूची दी गयी है उसमें अवन्ती का उल्लेख नहीं है जबकि अवन्ती श्रमण भगवान् महावीर के समय एक प्रसिद्ध राज्य था । वहाँ का चन्द्रप्रद्योत राजा था। भगवान् महावीर सिन्धु- सौवीर जब पधारे थे तो अवन्ती से ही पधारे थे। सिन्धुसौवीर से अवन्ती अस्सी योजन दूर था।" दक्षिण में जैनधर्म का प्रचार था फिर भी उन क्षेत्रों को आर्यक्षेत्रों की परिगणना में नहीं लिया गया है। यह विज्ञों के लिए १. प्रज्ञापना १ सूत्र १००; २. तत्त्वार्थवार्तिक ३।३६, पृष्ठ २०१; ३. प्रज्ञापना १।१०१; ४. तत्त्वार्थवार्तिक ३।३६, पृष्ठ २००; ५. तत्त्वार्थभाष्य ३।१५; ६. इत्थुप्पत्ति जिणाणं, चक्कीणं राम कण्हाणं । - प्रज्ञापना १।११७; ७ यत्र तीर्थंकरादीनामुत्पत्तिस्तदार्यं, शेषमनार्यम् । प्रवचनसारोद्धार, पृ. ४४६; ८. जेसु केसुवि परसेसु मिहुणगादि पइट्ठिएसु हक्काराइया नीई परूढा ते आरिया, सेसा अणारिया । - आवश्यकचूर्णि; ९. भरतेषु अर्धषड्विंशतिजनपदेषु जाताः शेषेषू च चक्रवर्तिविजयेषु । - तत्त्वार्थभाष्य ३।१५; १०. क्षेत्रार्याः काशिकोशलादिषु जाताः । - तत्त्वार्थवार्तिक ३।३६, पृष्ठ २००; ११. गच्छाचार, पृष्ठ १२२ 35
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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