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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ प्रबल विरोध का वातावरण समुत्पन्न हुआ, तब ग्रन्थ के सम्पादक डॉ. हीरालालजी जैन आदि ने पुनः उसका स्पष्टीकरण षट्खण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना में किया, किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री [कर्नाटक में षट्खण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी 'संजद' शब्द मिला है। वट्टकरस्वामिविरचित मूलाचार में आर्यिकाओं के आचार का विश्लेषण करते हुए कहा है-जो साधु अथवा आर्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं, वे जगत में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं। इसमें भी आर्यिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है, यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि वे उसी भव में मोक्ष प्राप्त करती हैं अथवा तत्पश्चात् के भव में। बाद के दिगम्बर आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में और प्राचीन ग्रन्थों की टीकाओं में स्पष्ट रूप से स्त्रीनिर्वाण का निषेध किया है। ____जो पुरुष शरीर से सिद्ध होते हैं, वे 'पुरुषलिंगसिद्ध' हैं। नपुंसक शरीर से सिद्ध होते हैं, वे 'नपुंसकलिंगसिद्ध' हैं। जो तीर्थकर प्रतिपादित श्रमण पर्याय में सिद्ध होते हैं, वे 'स्वलिंगसिद्ध हैं। परिव्राजक आदि के वेष से सिद्ध होने वाले 'अन्यलिंगसिद्ध हैं। जो गृहस्थ के वेष में सिद्ध होते हैं, वे 'गृहलिंगसिद्ध हैं। एक समय में अकेले ही सिद्ध होनेवाले 'एकसिद्ध' हैं। एक ही समय में एक से अधिक सिद्ध होने वाले 'अनेकसिद्ध' हैं। सिद्ध के इन पन्द्रह भेदों के अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी सिद्धों के भेद प्रस्तुत किये हैं। . सिद्धों के जो पन्द्रह प्रकार प्रतिपादित किये हैं, वे सभी तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध इन दो प्रकारों में समाविष्ट हो जाते हैं। विस्तार से निरूपण करने का मल आशय सिद्ध बनने के पर्व उस जीव की क्या स्थिति थी.यह है। प्रज्ञापना के टीकाकार ने भी इसे स्वीकार किया है। : जिस प्रकार जैन आगम साहित्य में सिद्धों के प्रकार बताये हैं, वैसे ही बौद्ध आगम में स्थविरवाद की दृष्टि से बोधि के तीन प्रकार बताये हैं-सावकबोधि [श्रावकबोधि], पच्चेकबोधि [प्रत्येकबोधि], सम्मासंबोधि [सम्यक् संबोधि]। श्रावकबोधि उपासक को अन्य के उपदेश से जो बोधि प्राप्त होती है उसे श्रावकबोधि कहा है। श्रावकसम्बुद्ध भी अन्य को उपदेश देने का अधिकारी है। जैन दृष्टि से प्रत्येकबोधि को अन्य के उपदेश की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही पच्चेकबोधि को भी दूसरे के उपदेश की जरूरत नहीं होती। उसका जीवन दूसरों के लिए आदर्श होता है। सम्मासंबोधि स्वयं के प्रबल प्रयास से बोधि प्राप्त करता है और अन्य व्यक्तियों को भी वह बोधि प्रदान कर सकता है। उसकी तुलना तीर्थकर से की जा सकती है।' आर्य और अनार्य : एक विश्लेषण सिद्धों के भेद-प्रभेदों की चर्चा करने के पश्चात् संसारी जीवों के विविध भेद बतलाये हैं। इन भेद-प्रभेदों का मूल आधार इन्द्रियाँ हैं। संसारी जीवों के इन्द्रियों की दृष्टि से एक, द्वि, त्रि, चतुः पंचइन्द्रिय इस प्रकार पांच भेद किए गये हैं, फिर एकेन्द्रिय में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय आदि के विविध भेद-प्रभेदों की प्रज्ञापना की गयी है। एकेन्द्रिय के पश्चात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का वर्णन है। पंचेन्द्रिय में भी नारक एवं तिर्यंच पंचेन्द्रियों का वर्णन करने के पश्चात् मनुष्य का वर्णन किया है। मनुष्य के संमूर्छिम और गर्भज, ये दो भेद किए हैं। समूर्छिम मनुष्य औपचारिक मनुष्य है; वे गर्भज मनुष्य के मल, मूत्र, कफ आदि अशुचि में ही उत्पन्न होते हैं, इसीलिए उन्हें मनुष्य कहा गया है। गर्भज मनुष्य के कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तीपज ये तीन प्रकार हैं। १. ते जंगपुज्ज कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति-मूलाचार ४/१९६ पृ. १६८; २. विनयपिटक, महावग्ग १।२१, ३. (क) उपासकजनालंकार की प्रस्तावना, पृ. १६ (ख) उपासकजनालंकार लोकात्तरसम्पत्ति निद्देस, पृ. ३४० (ग) पण्णवणासुत्तं द्वितीय भाग, प्रस्तावना पृ. ३६-पुण्यविजयजी 34
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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