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________________ (138) निर्मळ हंस अंश जिहां होय, निर्जरा द्वादशविध तप जोय; वेद भेद बंधन दुःखरूप, बंध अभाव ते मोक्ष अनूप. ६ परपरिणति ममतादिक हेय, स्वस्वभाव ज्ञान कर ज्ञेय उपादेय आतम गुणवृंद, जाणो भविक महा सुखकंद.७ परमबोध मिथ्याग् रोध, मिथ्यागू दुःख हेत अबोध; आतमहित चिंता सुविवेक,तास विमुख जडता अविवेक.८ परभव साधक चतुर कहावे, मूरख ते जे बंध बढावे; त्यागी अचळ राज पद पावे, जे लोभी ते रंक कहावे.९ उत्तम गुणरागी गुणवंत, जे नर लहत भवोदधि अंत; जोगी जस ममता नहीं रति, मन इंद्री जीते ते जति.१० समता रस सायर सो संत, तजत मान ते पुरुष महंत शूरवीर जे कंद्रप वारे, कायर काम आणा शिर धारे.११ अविवेकी नर पशु समान, मानव जस घट आतमज्ञान; दिव्य दृष्टि धारी जिनदेव, करता तास इंद्रादिक सेव.१२ ब्राह्मण ते जे ब्रह्म पिछाणे, क्षत्री कमरिपु वश आणे; वैश्य हाणि वृद्धि जे लखे, शुद्र भक्ष अभक्ष जे भखे.१३ अथिर रूप जाणो संसार, थिर एक जिन धर्म हितकार; इंद्रियसुख छिल्लर जलजाणो,श्रमण अतीद्री अगाँध वखाणो इच्छारोधन तप मनोहार, जप उत्तम जगमें नवकार; संजम आतम थिरता भाव, भवसायर तरवाको नाव.१५
SR No.005739
Book TitlePadyavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay, Kunvarji Anandji
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1995
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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