SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (100) लाभालाभ विचारी कहीए, .. नहिंतर मनमें जाणी रहीए ॥ २१२ ॥ विवाहदान इत्यादिक काज, सौम्य चंद्रजोगे सुखसाज । क्रूर काममें सूर प्रधान, पूर्वकथित मनमें ते जान ॥ २१३ ॥ ॥ दोहा । चंद्रजोग थिर काजकुं, उत्तम महावखाण । भानजोग चर काजमें, श्रेष्ठ अधिक मन आण ॥२१४॥ सुखमन चलत न कीजीए, चर थिर कारज कोय । करत काम सुखमन विषे, अवस हाणि कछु होय ॥२१५।। भवनप्रतिष्ठादिक सहु, वरजित सुखमन मांहि । गामांतर जावा भणी, पगला भरीए नांहि ॥२१६॥ दुःख दोहग पीडा लहे, चित्तमें रहे क्लेश । चिदानंद सुखमन चलत, जो कोइ जाय विदेश ॥२१७।। कारजकी हानि हुवे, अथवा लागे वार । अथवा मित्र मिले नहीं, सुखमन भाव विचार ॥२१८॥ श्वास शीघ्र अति पालटे, छीन चंद्र छीन सूर । ते सुखमन स्वर जाणजो, नाभ सनिल भरपूर ॥२१९॥
SR No.005739
Book TitlePadyavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay, Kunvarji Anandji
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1995
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy