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लाभालाभ विचारी कहीए, ..
नहिंतर मनमें जाणी रहीए ॥ २१२ ॥ विवाहदान इत्यादिक काज,
सौम्य चंद्रजोगे सुखसाज । क्रूर काममें सूर प्रधान, पूर्वकथित मनमें ते जान ॥ २१३ ॥
॥ दोहा । चंद्रजोग थिर काजकुं, उत्तम महावखाण । भानजोग चर काजमें, श्रेष्ठ अधिक मन आण ॥२१४॥ सुखमन चलत न कीजीए, चर थिर कारज कोय । करत काम सुखमन विषे, अवस हाणि कछु होय ॥२१५।। भवनप्रतिष्ठादिक सहु, वरजित सुखमन मांहि । गामांतर जावा भणी, पगला भरीए नांहि ॥२१६॥ दुःख दोहग पीडा लहे, चित्तमें रहे क्लेश । चिदानंद सुखमन चलत, जो कोइ जाय विदेश ॥२१७।। कारजकी हानि हुवे, अथवा लागे वार । अथवा मित्र मिले नहीं, सुखमन भाव विचार ॥२१८॥ श्वास शीघ्र अति पालटे, छीन चंद्र छीन सूर । ते सुखमन स्वर जाणजो, नाभ सनिल भरपूर ॥२१९॥