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"थिरा दृष्टि कांता फुनि लहीए,
प्रभा परा अष्टम हग कहीए ॥ ८० ॥ सघन अघन दिन रयणी कही,
ताका अनुभव यामें लही। निरउपाधि एकांते स्थान,
तिहां होय ए आतम ध्यान .॥ ८१ ॥ अल्प आहार निद्रा वश करे, . - हित सनेह जगथी परिहरे । लोकलाज नवि करे लिगार, - एक प्रीत प्रभुथी चित्त धार ॥ ८२ ॥ आशा एक मोक्षकी होय,
दुजी दुविधा नवि चिंत्त कोय । ध्यान योग्य जाणो ते जीव,
जे भवदुःखथी डरत सदीन ॥ ८३ ॥ परनिंदा मुखथी नवि करे, .. स्वनिंदा सुणी समता धरे । करे सहु विकथा परिहार,
रोके कर्म. आगमन द्वार ॥८४॥