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________________ ( ७७ ) निज अनुभव लवलेशथी, कठिन कर्म होय नाश । अल्प भवे भवि ते लहे, अविचलपुरको वास ॥५३॥ व्यवहारे ये ध्यानको, भेद नवि कहेवाय । भिन्न भिन्न कहेतां थकां, ग्रंथ अधिक हो जाय ॥ ५४ ॥ नाम मात्र अब कहत हुं, याको किंचित् भाव । अधिक भवि तुम जाणजो, गुरुगम तास लखाव ॥ ५५ ॥ अष्ट भेद है जोग, पंचम प्राणायाम | ताके सप्त प्रकार है, सकल सिद्धके धाम ॥ ५६ ॥ रेचक पूरक तीसरो, कुंभक भेद पिछाण । शांतिक समता एकता, लीन भाव चित्त आण ॥ ५७ ॥ पूरक पवन गहत सुधी, कुंभक थिरता तास । रेचक बाहिर संचरे, शांतिक ज्योति प्रकाश ॥ ५८ ॥ समता ध्येय स्वरूपमें, तिहां सूक्ष्म उपयोग | ग एकता गुण विषे, लीन भाव निज जोग ॥ ५९ ॥ लीन दशा व्यवहारथी, होत समाधि रूप । निहवेथी चेतन यह, होवे शिवपुर भूप ॥ ६० ॥ स्वासाकुं अति थिर करे, ताणे नहीं लिगार । मूलबंध दृढ लायके, करे बीज संचार ॥ ६१ ॥ ૧૫
SR No.005739
Book TitlePadyavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay, Kunvarji Anandji
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1995
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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