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________________ ( ३४ ) पुद्गल रागी थह धरत निज, देह गेहेथी नेह; पुद्गल राग भाव तज दिलथी, छिनमें होत विदेह. संतो० १६ पुद्गल पिंड लोलुपी चेतन, जगमें रांक कहावे; पुद्गल नेह निवार पलकमें, जगपति बिरुद धरावे. सं० १७ पुद्गल मोह प्रसंगे वेतन, चारु गति में भटके; पुद्गल नेह तजी शिव जातां, समय मात्र नहीं अटके. सं. १८ पुद्गल रस रागी जग भटकत, काल अनंत गमायो, काची दोय घडीमें निज गुण, राग तजी प्रगटायो. सं० १९ › पुद्गल रागे वार अनंती, तात मात सुत थइया; haant बेटा कीस बाबा भेद साच जब लहीया. सं० २० पुद्गल संग नाटक बहु नटवत करतां पार न पायो; भवस्थिति परिपक्व थइ तब, सहेजे मारग आयो. संतो० २१ पुद्गल रागे देहादिक निज, मान मिथ्याति सोय; देह गेहनो नेह तजीने, सम्यकदृष्टि होय. संतो० २२ काल अनंत निगोद धाममें, पुद्गल रागे रहियो; दुःख अनंत नरकादिकथी तुं, अधिक बहुविध सहियो. सं० पाय अकाम निर्जराको बल, किंचित उंचो आयों; स्थूलमां पुद्गलरसवशथी कालअसंख्य गमायो. संतो० २४ १ घरे छे. २ घर. ३ क्षण. ४ चारे.
SR No.005739
Book TitlePadyavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay, Kunvarji Anandji
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1995
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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