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________________ ર૩ર D ઉપાધ્યાય યશોવિજય સ્વાધ્યાય ગ્રંથ आदि दार्शनिकों की क्षतियां भी कही है। १०२ से १०६ पद्यों में रति का वक्तव्य है । इसमें रति प्रीति का आन्तरिक उपकार मानती है और स्वयं को धन्य समझती है । १०७ और १०८ पद्य में रति और प्रीति सुगुरु के आश्रय में रहती है यह बात कही है। यहां प्रीति और रति का संवाद पूरा होता है। इसके बाद १ से २१ पद्यो में अपनी प्रीति और रति नामक दोनों पलियां एक त्यागी तापस के आश्रय में रही हैं यह बात जानकर क्रुद्ध कामदेव का विस्तार से वर्णन है। यहां कामदेव के वक्तव्य में अपने बाण से शंकर जैसे भी चलायमान हुए हैं और नंदिषेण जैसे जैन मुनि को भी चलायमान किया है । इस विषय के विस्तृत निरूपण पूर्वक कामदेव का समस्त जगत जीतने के अहंकार का निरूपण है । तथा निग्रंथ सुगुरु को जीतने के लिए कामदेव ने अपने मंत्री को सैन्य तैयार करने का कहा है। उपर्युक्त निरूपण के बाद ग्रंथ अपूर्ण लगता है ऐसा मुझे प्रतीत होता है। यहां कामदेव ने तपस्वी सुगुरु को चलायमान करने के लिए आगे क्या किया सो स्पष्ट नहीं होता। प्रीतिरति के संवाद के अन्त में कर्ता ने अपना नामनिर्देश किया है ऐसा यहां अन्त्य २१ वें पद्य में कर्ता ने अपने नाम का कोई उल्लेख नहीं किया। इस कारण भी पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराज की यह रचना भी अपूर्ण है, ऐसा मेरा मन्तव्य है। प्रस्तुत रचना की शैली महाकाव्य जैसी प्रौढ और गंभीर है । इसे संपूर्ण रूप से समझने की मेरी गुंजाइश नहीं है। मैंने मेरे एक दो सुपरिचित विद्वानों के साथ परामर्श किया था, लेकिन समग्र रचना का हार्द समझने के लिए कोई अधिकारी विद्वान का सहकार लेने का मैंने सोचा है प्रस्तुत रचना को समझने के लिए पं. अमृतलाल भोजक ने सुख्यात विद्वान श्री के. का. शास्त्री के पास जाकर कितनेक स्थान पर पाठ ठीक किए हैं और छन्दोविषयक जानकारी भी इनसे मिली है, इस सहकार के लिए मैं श्री के. का. शास्त्रीजी के प्रति सादर कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। अन्तमें प्रस्तुत रचना के कितनेक पद्य प्रस्तुत करके में अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ। * यस्य रूपभरमप्रतिरूपं निर्निमेषनयनेन निरूप्य । ___प्रीतिरुत्पलकमेतदवादीत् सस्मितं प्रतिरति स्फुटभङ्गि ॥१॥ * आचचार नहि चारु विरञ्चिवञ्चिते यदिह साम्प्रतमावाम् । आवयोरतनुना किल योगः श्रीगुरावुचितपर्यनुयोगः ॥४॥ * अथ रतिर्विलसत्पुलकावलिः प्रमदमेदुरमेतदवीवदत् । . मुकुलिताधरपल्लवपाटलद्युतिविसर्पणरञ्जितदिग्वधूः ।।२६।। * सकललोकविलोकनकौतुकाकुलविलोचनदत्तसभाजनम्।
SR No.005729
Book TitleUpadhyay Yashovijayji Swadhyay Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPradyumnavijay, Jayant Kothari, Kantilal B Shah
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1993
Total Pages366
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size7 MB
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