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[ જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વારાધન-સંગ્રહવિભાગ शासनका भी ऐसा ही भाव होना चाहिये, जिससे टिप्पण के तिथियों का अभिभावक बने रहने की मर्यादा का लोप, टिप्पण की अक्षुण्ण प्रमाणता घोषित करने वाले "श्रीविचारामृतसंग्रह " " श्रीप्रवचन-परीक्षा" आदि प्रामाणिक जैनशास्त्रग्रन्थों से इस शास्त्र का संघर्ष और योग्य पूर्णिमा से गृहीत-त्यक्त वा नपुंसकभूत प्रथम पूर्णिमा के सम्पर्क से दूषित दिन के साथ सम्पर्क करने के निमित्त पवित्र चतुर्दशी द्वारा अपने निजी दिन से सम्बन्धविच्छेद आदि कदाचारों का प्रसार न हो। ___ यदि यह कहा जाय कि जैसे नपुंसक व्यक्ति अपनी सन्तानजनन करने में ही असमर्थ होता है वैसे पूर्णिमा भी अपने नामाङ्कित कार्यों में ही असमर्थ होती है-यही बात श्रीप्रवचन परीक्षाकारने उस ग्रन्थ के ४०८ और ४०९ पृष्ठों में कही है। इसलिये प्रथम पूर्णिमा से पूर्णिमा की आराधना का कार्य भले न हो पर चतुर्दशी की आराधना होने में कोई बाधा नहीं है, पर यह कथन भी युक्त नहीं है, कारण कि आद्य पूर्णिमा को पूर्णिमा की आराधना प्राप्त थी अतः ग्रन्थकार ने उसके प्रति उसकी असमर्थता घोषित कर उस प्राप्ति का परिहार किया, परन्तु चतुर्दशी की आराधना प्रथम पूर्णिमा को प्राप्त नहीं थी, इसलिये चतुर्दशी की आराधना के प्रति उसकी असमर्थता बताने का कोई अवसर नहीं था, अतः वह बात ग्रन्थकार ने नहीं कही। इसलिये ग्रन्थकार द्वारा पूर्णिमा में चतुर्दशी की आराधना के प्रति अक्षमता न बतलाने मात्र से यह कल्पना नहीं की जा सकती कि पूर्णिमा में चतुर्दशी की आराधना हो सकने में ग्रन्थकार की सम्मति है।
क्लीव पूर्णिमा जब पहले दिन अपनी ही आराधना की प्रसवित्री नहीं होती तो वह चतुर्दशी की आराधना की प्रसवित्री कैसे हो सकती है ?-श्रीरामचन्द्रसूरि के इस प्रश्न का समाधान करने के निमित्त श्री० सा० सू० ने एक बड़ा तुच्छ तर्क उपस्थित किया है, वह यह कि जैसे नपुंसक नारी सन्तान पैदा करने में असमर्थ होने पर भी युद्ध आदि कठिनतर कार्यों को बड़ी कुशलता से कर लेती है उसी प्रकार आद्य पूर्णिमा भी अपनी आराधना-सम्पन्न करने में अशक्त होने पर भी चतुर्दशी की आराधना को तो सम्पन्न कर ही सकती है। इस पर हमारा कथन यह है कि यह तुच्छोक्ति श्री० सा० सू० के प्रश्न का किञ्चित् भी स्पर्श न कर सकने वाली बुद्धि का ही फल है। उनके प्रश्न का तो स्पष्ट आशय यह है कि जैसे जो नारी नपुंसकता के कारण मानव-सन्तान पैदा करके अपने पति को सन्तानवान् नहीं बना सकती, वह देवसन्तान का जनन कर उसके द्वारा अपने पति को पिता के पद पर सुतरां नहीं बिठा सकती, वैसे ही प्रथम पूर्णिमा जब अपने नामांकित आराधना को सम्पन्न कर उससे अपने दिवस को आराधनावान् नहीं बना सकती तब चतुर्दशी जैसे प्रधान पाक्षिक पर्व तिथि की आराधना को सम्पन्न कर उससे उस दिवस की आराधनावान् कैसे बना सकती है ? इस प्रश्न का उत्तर श्री सा० सू० की उस सारहीन उक्ति से कैसे हो सकता है ? इसे पाठक स्वयं सोचें।
पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसंग में पूर्णिमा की आराधना दूसरे दिन व्यवस्थित हो जाने पर प्रथम पूर्णिमा के दिन को ही चतुर्दशी की आराधना करने के औचित्य के समर्थन में श्री सा० सू० ने जो एक यह युक्ति दी है कि ऐसा न करने पर चतुर्दशी और पूर्णिमा की आराधना में अव्यवधान के नियम का भंग हो जायगा, वह भी ठीक नहीं है क्यों कि उक्त नियम में कोई प्रमाण नहीं है। ___" आचारमयसामाचारी" के तीसरे पत्र में और " श्रीसेनप्रश्न " के १०५ वे पृष्ठ में प्रतिमाधर श्रावक और श्राविका के लिये चतुर्दशी और पूर्णिमा में षष्ठ करने का विधान है,
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