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________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અર્ધતિથિભાસ્કર ] ૧૩૩ पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसंग में इसकी उपपत्ति तभी हो सकती है जब चतुर्दशी तथा पूर्णिमा की अव्यवहित आराधना की जाय, इस लिये उस विधान से यह अनुमान निर्बाध रूप से किया जा सकता है कि वृद्धा पूर्णिमा के प्रथम दिन को ही चतुर्दशी मानना शास्त्रसम्मत है। श्री० सा० सू० का यह कथन भी संगत नहीं है, कारण कि चतुर्दशी और पूर्णिमा को सदा षष्ठ ही होना चाहिये इस बात में उक्त ग्रन्थों का तात्पर्य स्वीकार करने में कोई युक्ति नहीं है, उनका तात्पर्य तो यही हो सकता है कि चतुर्दशी और पूर्णिमा में जहाँ अव्यवधान हो वहाँ षष्ठ करना चाहिये और जहाँ (पूर्णिमा की वृद्धि में) वह न हो वहाँ चतुर्दशी और पूर्णिमा को पृथक् पृथक् दो उपवास करना चाहिये, ऐसा करने से भी चतुष्पर्वी की आराधना उपपन्न हो जाती है । अशक्त व्यक्ति के लिये पूर्णिमा में केवल आयंबिल आदि ही कर लेने का शास्त्र में आदेश मिलता है, जिसका यह निर्विवाद भाव है कि सम्भवानुसार ही षष्ठ की कर्तव्यता का आदेश शास्त्र में किया गया है । तात्पर्य यह कि चतुर्दशी और पूर्णिमा के स्वभाव-प्राप्त अव्यवधान-स्थल में भी जब अशक्ति रहने पर षष्ठ त्याग का संकेत शास्त्रने कर रखा है तब पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसंग में षष्ठ की अनिवार्य कर्तव्यता में शास्त्र का आदेश मानने में कोई युक्ति नहीं है। ___ “सेनप्रश्न", तृतीय उल्लास के सतासीवें पृष्ठ में-" एकादशी की वृद्धि में श्रीहीरविजयसूरि के निर्वाण-महिमा के सम्बन्ध में पौषध उपवास आदि कार्य कब करना चाहिये-पूर्व एकादशी में वा उत्तर एकादशी में (एकादशीवृद्धौ श्रीहीरविजयसूरीणां निर्वाणमहिमपौषधोपवासादिकृत्यं पूर्वस्यामपरस्यां वा कि विधेयम् ) इस प्रश्न का यह उत्तर दिया गया है कि औदयिकी एकादशी में करना चाहिये-(औदयिक्येकादश्यां श्रीहीरविजयसूरिनिर्वाणपौषधादि विधेयम् )। यहाँ पर श्री० सा० सू० की कल्पना के अनुसार इस उत्तर ग्रन्थ का यह अभिप्राय है कि एकादशी अपनी वृद्धि में एक ही दिन औदयिकी होती है, यदि दो दिन उसका औदयिकी होना इष्ट हो तो इस ग्रन्थ से उक्त प्रश्न का उत्तर ही नही हो सकता, क्यों कि दो दिन एकादशी के औदयिकी होने पर यह निश्चय होना शेष ही रह जाता है कि पूर्व वा उत्तर किस औदयिकी में उक्त पौषधादि कार्य करने चाहिये। इस पर हमारा कथन यह है कि-वृद्धा एकादशी को एक दिन मात्र औदयिकी मानने पर भी तो इस ग्रन्थ से उक्त प्रश्न का समाधान नहीं हो सकता, कारण कि उत्तरदाता ने यह तो बतलाया नहीं कि वृद्धा एकादशी किस दिन औदयिकी है और प्रश्नकर्ता को टिप्पण से एकादशी का दो दिन औदयिकी होना ज्ञात है ऐसी स्थिति में “औदयिकी एकादशी में करना चाहिये" इस उत्तर से प्रश्नकर्ता का मनस्तोष कैसे हो सकता है। इसलिये “औदयिक्येकादश्याम्" इस उत्तर वाक्य का यह अर्थ करना होगा कि एकादशी जिस दिन औदयिकी ही हो अर्थात् अस्तकाल से सम्बद्ध न हो उस दिन की एकादशी में ही उक्त कार्य करने चाहिये । और यह अर्थ तभी सम्भव होगा जब वृद्धा एकादशी का दो दिन वास्तविक सम्बन्ध माना जाय। पूर्णिमा और अमावास्या की वृद्धि में पहले औदयिकी तिथि आराध्य मानी जाती थी किन्तु मेरे पूज्य तात पहले दिन की तिथि को आराध्य मानते हैं, ऐसी स्थिति में उचित क्या है, औदयिकी को आराध्य मानना वा पूर्व दिन की तिथि को आराध्य मानना ? (पूर्णिमाऽमावास्ययोवृद्धौ पूर्वमौर्दायकी तिथिराराध्यत्वेन व्यवहियमाणाऽऽसीत् केनचिदुक्तं श्रीतातपादाः पूर्वतनीमाराध्यत्वेन प्रसादयन्ति तत्किम् ) किसी व्यक्ति के इस प्रश्नवाक्य में आये औदयिकी शब्द का भी उत्तर दिन की तिथि-यही अर्थ करना होगा, क्योंकि "सूर्योदयकालिकी" अर्थ करने पर उक्त प्रश्न की सम्भावना ही नहीं रह जाती, कारण कि प्रश्नकर्ता पञ्चाङ्ग के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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