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________________ ૧૩૧ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહરિથિભાસ્કર ] लेने के बल पर पहले दिन चतुर्दशी की और उसके पहले दिन तक त्रयोदशी की सत्ता की मान्यता श्रीसा० सू० को इष्ट नहीं है। बल्कि उनके कथनानुसार यही वस्तु-स्थिति है कि पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसंग में पूर्णिमा एकमात्र उत्तर दिन को ही है, और चतुर्दशी स्वभावतः हो उसके पहले दिन ही है एवं त्रयोदशी भी स्वभाव से ही दो दिन है। किन्तु टिप्पण को इस वस्तुस्थिति का पता नहीं है, अतः "वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" यह शास्त्रवचन इस तथ्य का प्रतिपादन करने को प्रवृत्त हुआ है, तो यह कथन भी संगत नहीं है, क्योंकि किस दिन कोन तिथि है ? इस बात के निर्णय में टिप्पण की ही प्रमाणता जैनशास्त्र को मान्य है। इसीलिये “ तत्त्वतरंगिणी" में इक्कीसवीं गाथा की व्याख्या में स्पष्ट कहा गया है कि तिथिनिर्णय के लिये टिप्पण देखना चाहिये वा टिप्पण के जानकार से पूछना चाहिये-“नो चेत् टिप्पणमवलोकनीयम, तद्वेत्ता वा प्रष्टव्यः"। यदि कहें कि यह गौरवपूर्ण उक्ति जैनसिद्धान्त-टिप्पण के सम्बन्ध में हो सकती है न कि लौकिक टिप्पण के, तो यह भी युक्त नहीं है, क्यों कि जैन टिप्पण के लुप्त हो जाने पर " श्री विचारामृतसंग्रह" के सोलहवें पृष्ठ में तथा “ श्री प्रवचनपरीक्षा" के १९० और ४४१ पृष्ठों में लौकिकटिप्पण को ही तिथिनिर्णय में प्रमाण मानने की बात विस्तार से कही गई है इस प्रसंग में श्रीरामचन्द्रसूरिका यह कथन भी बड़ा मनोरम और मननीय है कि जब वृद्धिंगत पूर्णिमा से उपगूद होनेपर भी पहला दिन नपुंसक होने के नाते पूर्णिमा में आराधना का आधान नहीं कर सकता अथवा पूर्णिमा ही नपुंसक होने से अपने गात्र-स्पर्शी प्रथम दिन को आराधनाङ्ग नहीं बना सकती तो प्रथम दिन के संसर्ग में न आनेवाली चतुर्दशी उसके द्वारा आराधनाको कुक्षिगत कैसे कर सकेगी, अथवा चतुर्दशी का स्पर्श न करनेवाला प्रथम दिन ही उसके द्वारा आराधना का जनक कैसे बन सकेगा? इसलिये वृद्ध पूर्णिमा के प्रथम दिन चतुर्दशी की आराधना सम्पन्न करने का श्री० सा० सू० का मनोरथ पूर्ण नहीं हो सकता। ___यदि कहें कि वृद्ध पूर्णिमा का प्रथम दिन न नपुंसक ही है और न चतुर्दशी के संसर्ग से शून्य ही है, किन्तु “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा” इस शास्त्र की आज्ञा से पूर्णिमा द्वितीयदिन-मात्रस्थ हो जाने पर चतुर्दशी से अपना अव्यवधान बनाये रखने के लिये चतुर्दशी को अपने पूर्व दिन से योग करने के निमित्त निमन्त्रित कर लेती है, अतः पूर्व-दिन-युक्ता चतुदशी आराधना को कुक्षिगत कर लेने में समर्थ हो जाती है। इसी प्रकार पूर्णिमा भी नपुंसक नहीं है किन्तु उक्त शास्त्र के आदेशानुसार वह प्रथम दिन के साथ सम्बन्ध न कर द्वितीय दिन के ही साथ सम्बन्ध करने को बाध्य कर दी जाती है, अतः वह दूसरे दिन के ही योग से आराधना-गर्भा बनती है। और त्रयोदशी को जिसके ललाट में चतुर्दशी का निकट अनुचरी होकर रहना ही लिखा है, चतुर्दशी के पूर्णिमा के प्रथम दिनाङ्क में प्रविष्ट हो जाने पर चतुर्दशी के टिप्पण-सम्मत दिन तक पहुँचने का बाध्य होना पड़ता है। इस विषय में किया ही क्या जा सकता है जब कि “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस शास्त्र के उग्र शासन के समक्ष टिप्पण को अपनी सम्मति लौटा लेनी पड़ती है और बेचारी तिथियों को भी अपने अभिभावक की परवशता में शास्त्रशासन की उद्भट विभीषिका से अगम्यगमन करना पड़ता है। ___ इस पर यही निवेदन करना है कि जैनशास्त्रों के शासन में ऐसी उग्रता नहीं होती जिससे किसी उचित मर्यादा का लोप, शासनाधिकारियों में परस्पर-संघर्ष और अनेक कदाचारों का प्रसार होने का अशोभन प्रसंग खड़ा हो सके। इसलिये" वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस शास्त्र १ देखिये मू० पु. पृ० सं० ७९, ८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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