________________
૧૩૦
[ જૈન દષ્ટિએ તિથિરિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ आराधना के स्वभाव-प्राप्त औचित्य की रक्षा हो जाती है। ___वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस वचन का यह सुसंगत अर्थ स्वीकार कर लेने पर केवल दृसरे ही दिन वृद्ध पर्व तिथि का अस्तित्व नहीं प्राप्त होता । फलतः पर्व तिथि की टिप्पणोक्त वृद्धि को न मान कर उसके पूर्व की तिथि की वृद्धि और पर्वानन्तर पर्व तिथि की भी टिप्पणोक्त वृद्धि को न मानकर दोनों पर्व तिथियों के पूर्व की अपर्व तिथि की वृद्धि माननी चाहिये -इस श्रीसागरानन्दसूरि की अयौक्तिक एवं अप्रामाणिक कल्पना के लिये कोई अवकाश नहीं रह जाता। इसके अतिरिक्त उनकी इस कल्पना के पीछे अनेक दोष भी हैं । जैसे–टिप्पणविरोध, मृषा भाषण, पर्वलोप और भावी कारण से नष्ट कार्य की उत्पत्ति आदि । यह दोष इस प्रकार होते हैं:
१-टिप्पण जहाँ पर्व तिथि की वृद्धि और उसके पूर्व की अपर्वतिथि की अवृद्धि बतलाता है वहाँ श्रीसागरानन्दसूरि के मतानुसार उससे विरुद्ध पर्व तिथि की अवृद्धि और पूर्व की अपर्व तिथि की वृद्धि मानने से टिप्पण-विरोध।
२-वृद्धा पर्व तिथि को अवृद्धा और अवृद्धा अपर्व तिथि को वृद्धा कहने से मृषाभाषण ।
३–पर्वानन्तर पर्व तिथि की वृद्धि के प्रसंग में पूर्व तिथि के टिप्पणोक्त उदयदिन को उसकी आराधना न करने से पर्वलोप।
४-उसी प्रसंग में पूर्णिमा वा अमावास्या के द्वितीयदिनमात्रस्थ हो जाने से उसके पहले दिन को विगत चतुर्दशी की सत्ता मानने से भावी कारण 'पूर्णिमा' से नष्ट कार्य 'चतुर्दशी' की उत्पत्ति। ___चौथे दोष को दूसरे शब्दों में यों समझना चाहिये-वृद्धिगत पूर्णिमा का केवल दूसरे दिन ही सत्ता मान लेने के परिणाम-स्वरूप ही पूर्णिमा के पहले दिन चतुर्दशी की सत्ता माननी पड़ती है, पर यह तभी सम्भव है जब पूर्णिमा को चतुर्दशी का कारण माना जाय, और अन्यत्र जो पूर्ववर्ती कारण को अग्रिम क्षण में कार्य का उत्पादक माना जाता है उससे विरुद्ध यहाँ उत्तरक्षणवर्ती कारण को पूर्व क्षण में कार्य का उत्पादक माना जाय, किन्तु यह युक्ति तथा अनुभव से विरुद्ध है। यदि श्रीसागरानन्दसूरि की और से यह कहा जाय कि द्वितीय पूर्णिमा से प्रथम-पूर्णिमा के दिन नष्ट चतुर्दशी का जन्म उनको भी मान्य नहीं है, उनका स्पष्ट आशय तो यह है कि कार्य-सामान्य के प्रति काल-सामान्य कारण है, काल-सामान्य के भीतर पूर्णिमा भी आती है और कार्य-सामान्य के भीतर चतर्दशी भी आती है, अतः कार्य-सामान्य रूप से चतुर्दशी कार्य और काल-सामान्य रूप से पूर्णिमा उसका कारण होगी, कारण में कार्य-पद का उपचार सुचिर अभ्यस्त है, अतः प्रथम पूर्णिमा-रूप कारण में चतुर्दशी रूप कार्य के बोधक चतुर्दशी पद का व्यपदेश किया जा सकता है। इसी आधार पर वह प्रथम पूर्णिमा के दिन चतुर्दशी की सत्ता घोषित करते हैं। तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि चतुर्दशी और पूर्णिमा ये कार्यविशेष और कालविशेष के बोधक शब्द हैं, अतः इनमें से एक का दूसरे के अर्थ में प्रयोग विना विशेष कार्य-कारण-भाव के नहीं हो सकता। और प्रधान बात तो यह है कि उक्त प्रकार से प्रथम पूर्णिमा में चतुर्दशी का व्यपदेश मान लेने पर भी उस दिन चतुर्दशी की वास्तविक सत्ता, पूर्णिमा का अभाव, उसके पूर्व दिन तक त्रयोदशी की वृद्धि यह सारी बातें तो सिद्ध होंगी नहीं, फिर उक्त-व्यपदेश-मात्र से श्रीसागरानन्दसूरि का मनस्तोष कैसे होगा?
यदि उनकी और से यह कहा जाय कि वृद्ध पूर्णिमा की दूसरे दिन मात्र सत्ता मान
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org