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૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહતિથિભાસ્કર ]
૧૨૯ देते हैं । यह किसे विदित नहीं है कि किसी देश के राजा का प्रतिनिधि जब दूसरे देश में सम्मानित वा अपमानित होता है तो उससे राजा का ही सम्मानित वा अपमानित होना समझा जाता है यह चौथा और पाँचवाँ प्रकार धर्म के अङ्गभूत तिथि आदि के निर्णयार्थ जैनसंघ द्वारा प्रमाणतया स्वीकृत टिप्पण की एवं सम्मानित जैनशास्त्रों की प्रमाणता पर आघात न पहुँचाने से तथा पहले प्रकार में होनेवाले पर्व-लोप आदि दोषों से मुक्त होने से निन्दनीय नहीं है। ___अब अग्रिम पृष्ठों में “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस भाग के उत्थान का बोज तथा शास्त्र, यक्ति-सम्मत उसका व्याख्यान बताया जायगा।
यह पहले कहा जा चुका है कि पर्वतिथियों की आराधना का विधान करनेवाले और उनके औदयिकी होने के दिन को उनकी आराधना का अंग बताने वाले जैन शास्त्रीय वचनों की एकवाक्यता से जैनशास्त्रों का यह आदेश सिद्ध होता है कि समस्त पर्व तिथियों को आराधना उनके औदयिकी होने के दिन करनी चाहिये। इस आदेश के अनुसार उन तिथियों की जो दो दिन औदयिकी होने से वृद्धा मानी जाती हैं, दो दिन आराधना प्राप्त होती है, पर यह प्राप्ति नियत न होकर पाक्षिक बन जाती है कारण कि एक पर्व तिथि की दो दिन आराधना जैनशास्त्र और जैनपरम्परा को स्वीकृत नहीं है। इस अस्वीकृति का बोज यह जान पड़ता है-जैनशास्त्रों ने पर्वतिथियों की आराधना का आदेश उनके औदयिकी होने के दिन किया है। इस आदेश का पालन वृद्ध तिथियों की किसी एक दिन आराधना कर देने से हो जाता है, अतः दो दिन आराधना करने में कोई विशेष फल और न करने में कोई दोष न होने से एक ही दिन आराधना करने में जनता की प्रवृत्ति स्वभावतः प्राप्त होती है, अतः एक तिथि को दो दिन आराधना स्वीकार्य नहीं है। इस पाक्षिक प्राप्ति को दुसरे दिन नियत कर देने के उद्देश्य से “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" यह शास्त्र उत्थित हुआ है। इसका अर्थ यह है कि-वृद्धौ--एक पर्वतिथि का दो सूर्योदय से सम्बन्ध होने पर, उत्तरा-दूसरे सूर्योदय से विशिष्ट तिथि ही, ( यहाँ पर "ही" का बोधक 'एव' शब्द अध्याहार्य है, और वाक्य के पूर्व भाग में आया हुआ "तिथिः" शब्द योजनीय है ) कार्या-आराधना के लिये ग्रहणाह है। यह भी कहा जा सकता है कि वृद्ध तिथि की आराधना के अंग रूप से दो दिनों की पाक्षिक प्राप्ति होने पर आराधनांगरूप में उत्तर दिन का ही नियमन इस वचन से विवक्षित है।
___ आराधना-विधायक वाक्य तथा उदय दिन की आराधनाङ्गताका बोधक वाक्य एवं “क्षये पूर्वा तिथिः कार्या" यह पूर्वार्ध तथा " वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" यह उत्तरार्ध इन चारों की पारस्परिक एकवाक्यता से पर्वतिथियों की आराधना के सम्बन्ध में जैनशास्त्रों का यह आदेश सम्पन्न होता है कि सभी पर्वतिथियों की आराधना उन तिथियों की समाप्ति से अव्यवहितपूर्व सूर्योदय से आरम्भ होने वाले दिन अर्थात् उनकी समाप्ति के दिन करनी चाहिये। - उक्त व्यवस्था में यह शंका स्वभावतः उठती है कि वृद्ध तिथि की आराधना के अंगरूप से दो दिनों की पाक्षिक प्राप्ति में पूर्व दिन का ही आराध्य रूप से नियमन उचित है, क्योंकि उस दिन आराध्य तिथि सारे अहोरात्र में व्याप्त होकर विद्यमान है, पर इस शंका को महत्त्व देना निम्न दो कारणों से उचित नहीं है। एक तो यह कि जब पहले दिन को आराधनाङ्ग माना जायगा तो जिस तिथि की आराधना का आरम्भ पूर्व दिन में होगा दूसरे दिन उस तिथि के रहते ही उस आराधना का भंग होगा। दूसरा यह कि दूसरे दिन को आराधनाङ्ग मानने पर समस्त आराधनाङ्ग दिनों का आराध्य तिथि की समाप्ति के दिनरूप में अनुगम हो जाता है और अन्य तिथियों के समान वृद्ध तिथियों की भी उनकी समाप्ति के दिन ही ૧૭
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