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________________ ૧, લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયના સમર્થક શ્રી અર્હત્તિથિભાસ્કર रखनेवाली तिथि की पूर्व और उत्तर दिनों में आराधना की अव्यवस्थारूप अनवस्था । ( ३ ) जिस दिन जो तिथि स्वभावतः सूर्योदयकाल में न हो उस दिन उस तिथि की जैनशास्त्र से अनादिष्ट आराधना को जैनशास्त्र से आदिष्ट मानना - इस प्रकार का मिथ्यात्व | ( ४ ) जो तिथि स्वभावतः जिस दिन सूर्योदय - काल में होती है उस दिन उस तिथि की जैन - शास्त्र - विहित आराधना न करके अयोग्यकाल में करने से उस पवित्र पर्वतिथि की विराधना । अतः इन दोषों से त्राण पाने के लिये यह परमावश्यक है कि धार्मिक जैनसमाज श्रीसागरानन्दसूरि को अपने शास्त्रविरुद्ध मत का प्रचार बन्द करने की प्रभाव - पूर्ण सम्मति दे । "" उदयंमि जा तिही " इत्यादि शास्त्र उत्सर्ग है तथा " क्षये पूर्वा " इत्यादि शास्त्र अपवाद है । और अपवाद शास्त्र की प्रवृत्ति उत्सर्ग शास्त्र की अपेक्षा शास्त्रीय व्यवस्था के अनुसार प्राथमिक होती है । इस लिये " क्षये पूर्वा ” इत्यादि प्रथम प्रवृत्त शास्त्र से जब क्षीण पूर्णिमा का चतुर्दशी के दिन और चतुर्दशी का त्रयोदशी के दिन औदयिकीत्व व्यवस्थित हो लेगा तब " उदयंमि जा तिही " यह शास्त्र प्रवृत्त होगा और उस दशा में ऊर्ध्वोक्त चारों दोषों के औदयिकी तिथि की आराधना का विपर्यय रूप बीज न होने से उनकी प्रसक्ति न होगी । श्री सागरानन्दसूरि का यह तर्क भी ठीक नहीं है । कारण कि उत्सर्ग और अपवाद की परिधि में वही शास्त्र आ सकते हैं जिनका क्षेत्र समान हो, पर यहाँ तो क्षेत्र-भेद है, क्योंकि " क्षये पूर्वा " इत्यादि शास्त्र क्षीण और वृद्ध तिथियों की आराधना की व्यवस्था करने को प्रवृत्त हैन कि अक्षीण और अवृद्ध तिथियों की, कारण की उनकी आराधना के विषय में किसी प्रकार की अनुपपत्ति की शंका ही नहीं है । ऐसी स्थिति में उस शास्त्र का वही व्यापार मानना न्याय्य होगा जिससे क्षीण और वृद्ध तिथियों की आराधना की व्यवस्था हो जाय एवं क्षण तथा अवृद्ध तिथियों की उनके मुख्य काल में आराधना होने में किसी प्रकार की आंच भी आये । और यह बात, जिस दिन जो तिथि समाप्त हो उस दिन वह तिथि औदयिकी समझी जानी चाहिये - इस पारिभाषिक औदयिकीत्व को आराधना का प्रयोजक मान लेने से सम्भव हो जाती है । ऐसे सुन्दर प्रकार के रहते हुये भी मालूम नहीं कि श्रीसागरानन्दसूरि को, चतुर्दशी के दिन क्षीण पूर्णिमा को औदयिकी मानना चतुर्दशी के स्वभाव-सिद्ध टिप्पणोक्त औदयिकीत्व को छोड़ कर उसे त्रयोदशी के दिन औदयिकी मानना - यह कदर्थना क्यों इतनी प्यारी हो गई है कि उससे वह अपना पल्ला छुडाने में असमर्थ हो रहे हैं। हाँ, तो उपर्युक्त प्रकार से यह सिद्ध हो जाने पर कि " क्षये पूर्वा " इत्यादि शास्त्र का क्षेत्र क्षीण और वृद्ध तिथियाँ ही हैं, “ उदयंमि जा तिही " इस शास्त्र का अक्षीण और अवृद्ध तिथियों में निरकुंश आदेश चलने में कोई बाधा नहीं है । ૧૨૩ प्रातः समाप्तिमूलक पारिभाषिक औदयिकीत्व को सब पर्व तिथियों की आराधना का प्रयोजक मानने पर सूर्योदय-स्पर्श-रूप औदयिकीत्व को आराधना का प्रयोजक बतलानेवाले " तिथिश्च " " चाउम्मासि......” “ पूजा पच्चक्खाणं," इत्यादि शास्त्रों का अनादर होगा - यह शंका भी संगत नहीं है, क्योंकि उक्त औदयिकीत्व को आराधना का प्रयोजक बनाने के मूल में जो उनका उद्देश्य है, वह यही है कि जिससे पहले दिन सूर्योदय के बादसे आरम्भ हो कर दूसरे दिन सूर्योदय का स्पर्श करने वाली पर्व तिथियों की पहले दिन आराधना करने में लोकप्रवृत्ति का परिहार हो, सो तो पारिभाषिक औदयिकीत्व को भी आराधना का प्रयोजक मानने पर सम्पन्न हो ही जाता है, अतः उन शास्त्रों के अनादर का कोई प्रसंग नहीं है । श्रीसागरानन्दसूरि “ उदयंमि जा तिही " इत्यादि शास्त्र को उत्सर्ग और " क्षये पूर्वा "" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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