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________________ ૧૨૪ [ જૈન દૃષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વોરાધન–સંગ્રહવિભાગ इत्यादि शास्त्र को अपवाद मानते हैं, जिसका अर्थ यह होता है कि सूर्योदय-स्पर्शरूप औदfaatra को अक्षीण तिथियों की आराधना का प्रयोजक मानना चाहिये, अन्यथा यदि उस औदयित्व को सब पर्व तिथियों की आराधना का प्रयोजक मानेंगे तो उक्त शास्त्रों के उत्सपवाद-भाव का अर्थ ही क्या होगा ? " 'क्षये पूर्वा" इत्यादि शास्त्र को औदयिकीत्व - सम्पादन के द्वारा यदि क्षीण तिथियों की आराधना का उपपादक माना जायगा तो “ उदयंमि जा तिही " इस शास्त्र का, क्षीण पर्वतिथि और जिन पर्व तिथियों की अनन्तर पर्व तिथि क्षीण हो वह, इन दोनों प्रकार की तिथियों से भिन्न पर्व तिथियों में संकोच करना होगा । इसलिये " क्षये पूर्वा " इत्यादि शास्त्र का पारिभाषिक औदयिकीत्व को आराधना का प्रयोजक मानने में तात्पर्य स्वीकार कर अक्षीण पर्व - तिथिमात्र उदयंमि " इत्यादि शास्त्र का लाघवयुक्त संकोच मानना ही उचित है । यह भी विचार करने की बात है कि यदि “ क्षये पूर्वा " इस शास्त्र को क्षीणतिथि के सूर्योदयस्पर्श रूप औदयिकीत्व का सम्पादक मानेंगे तब पर्वानन्तरपर्वतिथि के क्षय के दिन उस क्षीणतिथि के औदयिकी बन जाने पर उसके पूर्व की पर्वतिथि अनौदयिकी हो जायगी । फिर उस दशा में उस पहली तिथि को औदयिकी बनाने का क्या उपाय होगा ? यदि कहें कि वही " क्षये पूर्वा " शास्त्र उसे भी औदयिकी बनायेगा, तो यह ठीक नहीं होगा, कारण कि टिपण में क्षीण रूप से निर्दिष्ट तिथि को औदयिकी बनाने में उस शास्त्र का तात्पर्य मानना न्याय्य है, क्योंकि उस शास्त्र के प्रकट होने के पूर्व तिथि का क्षय टिप्पण से ही प्राप्त है । दूसरी बात यह है कि शब्द का विरम्य व्यापार मान्य न होने के कारण उस क पही शास्त्र का पहले क्षीण द्वितीय पर्वतिथि को औदयिकी बनाने और पीछे दूसरी तिथि के औदयिकी बन जाने से क्षय को प्राप्त हुई पहली तिथि को औदयिकी बनाने में क्रमिक व्यापार नहीं माना जा सकता । और सब से बडी बात तो यह है कि जब पहली पर्वतिथि के औदयिकीत्व की रक्षा करना परमावश्यक ही है तो उसे पहले अनौदयिकी बनाकर बाद में फिर औदयिकी बनाने का व्यापार कीचड में पग डाल कर बाद में उसे धोने की क्रिया के समान अज्ञानमूलक है । (C थोडे शब्दो में उपर्युक्त सारे विचारों का सारभूत अर्थ यह समझना चाहिये कि क्षीण पर्वतथियों में सूर्योदय के स्पर्श की कल्पना के बिना ही पारिभाषिक औदयिकीत्व के द्वारा उनकी आराधना का उपपादन युक्ति और शास्त्र के अनुसार सम्भव है । इसलिये “ क्षये पूर्वा " इस शास्त्र का क्षीणपर्व तिथि को औदयिकी बनाते हुये उसके पूर्व की अपर्व तिथि को औदयिकी बनाने में स्वारस्य मानना अनावश्यक और टिप्पण की स्वीकृत प्रमाणता का घातक होने से अनुचित है । इसी प्रकार पूर्व की अक्षीण पर्व तिथि और अनन्तर की क्षीण पर्व तिथि दोनों की एक दिन आराधना भी युक्ति, शास्त्र और चिरन्तन परम्परा से सम्मत होने से पर्वानन्तर पर्व तिथि के क्षय - प्रसंग में भी क्षय के दिन केवल क्षीण तिथि को और पहले दिन पर्व तिथि को औदयिकी बनाने की आवश्यकता न होने के कारण वहाँ भी दोनों तिथियों के पूर्ववर्ती अपर्व तिथि को अनौदयिकी बनाने तक उक्त शास्त्रवचन का व्यापार मानना निष्प्रयोजन और असंगत है । इस लिये यह बात निर्विवाद है कि पूर्वोक्त पाँचों प्रकारों में से पहले प्रकार को अपनाकर श्रीसागरानन्दसूरि ने विवेकगाम्भीर्य का परिचय नहीं दिया है, बल्कि भयंकर भूल की है । दूसरे और तीसरे' प्रकार प्रायः समान ही हैं और निर्विवाद रूप से शास्त्र, युक्ति और पुरातन जैनसामाचारी से समर्थित हैं । इस लिये उन प्रकारो द्वारा “ क्षये पूर्वा तिथिः कार्या १ देखिये हि० पु० पृ० सं० ६३ "" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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