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________________ ૧૨૨ [ જૈન દૃષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વોરાધન–સંગ્રહવિભાગ प्रश्न किया कि एक कल्याणक - तिथि के बाद वाली दूसरी कल्याणक तिथि के क्षयस्थल में उस क्षीण कल्याणक के उत्तर दिन या भविष्यद् वर्ष की कल्याणक तिथि के दिन उसकी तपस्या के अनुष्ठान का प्रचलन क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर तपागच्छ की ओर से यह दिया गया है कि कल्याणक के आराधक प्रायः विशेष तप के अभिग्रही होते हैं और उनमें भी कोई निरन्तर तप का अभिग्रही होता है और कोई सान्तर तप का । सान्तर तप का अभिग्रही भविष्यद् वर्ष की कल्याणक तिथि को लेकर अपने तप की पूर्ति करता है और निरन्तर तप का अभिग्रही क्षीणकल्याणक तिथि के उक्त दिन को लेकर अपने तप की पूर्ति करता है । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि क्षीणकल्याणक के दिन क्षीण और अक्षीण दोनों कल्याणकों की आराधना सम्पन्न न होने से वह ऐसा करता है । क्यों कि आराधना तो दोनों की एक दिन सम्पन्न हो ही जाती है। हाँ, छः उपवास (छठ) रूप तप का उसका संकल्प एक दिन मात्र से नहीं पूरा होता, इसलिए उसकी पूर्ति के निमित्त उसे दिनान्तर का ग्रहण करना पड़ता है। यह ठीक वैसा ही क्रम है जैसा चातुर्मास षष्ठ तप के अभिग्रही का पूर्णिमा के क्षय स्थल में होता है। वहाँ भी तो यही बात है कि यद्यपि चतुर्दशी के दिन ही चतुर्दशी और क्षीण पूर्णिमा की आराधनायें हो जाती हैं तथापि चतुर्दशी के एक दिन मात्र से संकल्पित षष्ट (छः उपवास) की पूर्ति न होने से अग्रिम दिन को लेकर उसकी पूर्ति की जाती है । इस उत्तर से भी यह निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि क्रमिक दो पर्व तिथियों में दूसरी तिथिका क्षय रहने पर पूर्व तिथि में ही दोनों तिथियों की आराधनाओं का होना शास्त्रसम्मत तथा शिष्टाचार परम्परा सम्मत है । आर्य की बात यह है कि इस उत्तर के उपर्युक्त अर्थ के इतना अधिक स्पष्ट रहने पर श्री श्रीसागरानन्दसूरि ने इसका विपरीत अर्थ कैसे समझा ? उनका अर्थ यह है कि पर्व तिथि की आराधना तप, पौषध आदि अनेक प्रकारों से होती है, इसलिये एक दिन दो पर्व तिथियों की आराधनायें नहीं हो सकतीं। हाँ, कल्याणक तिथि की आराधना केवल तप से भी सम्भव है, पर एक दिन मात्र के तप से दो कल्याणकों की आराधनायें नहीं हो सकतीं, इस लिये क्रमिक दो कल्याणकों में दूसरे का क्षय होने पर दोनों की आराधना के लिये दिनान्तर का ग्रहण आवश्यक है । इस प्रकार का अर्थ उस उत्तर के मूल वाक्योंसे कैसे निकलता है ? और ऐसा अर्थ व्यक्त करने का प्रकृत में क्या उपयोग है ? एक दिन के तप से दो कल्याणको की आराधनायें क्यों नहीं हो सकतीं ? जब कि तत्तत् तिथि की आराधना का अर्थ तत्तत् तिथि से युक्त दिन में शास्त्र, और परम्परा प्राप्त तप आदि का अनुष्ठान करना ही है । यह सब श्रीसूरिमहाशय की विचित्र बुद्धि ही जान सकती है । क्षीण पूर्णिमा की आराधना चतुर्दशी में और चतुर्दशी की आराधना त्रयोदशी में करनी चाहिये - इस श्रीसागरानन्दसूरि की व्यवस्था में “ उदयंमि जा तिही, सा पमाणमिअरी कीरमाणी । आणाभंगणवत्थामिच्छत्तविराहणं पावे " इस शास्त्र के अनुसार निम्न चार दोष भी अनिवार्यतया प्राप्त होते हैं । ( १ ) जो तिथि स्वभावतः जिस दिन सूर्योदयकाल में पडती हो उस तिथि की उसी दिन आराधना करनी चाहिये - इस जैनशास्त्रीय आशा का भंग । ( २ ) जो तिथि जिस दिन स्वभावतः सूर्योदय का स्पर्श करती है उस दिन उस तिथि की आराधना के नियम का परित्याग कर देने पर एक ही सूर्योदय से और दो दिनों से सम्बन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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