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૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અતિથિભાસ્કર ]
૧૧૯ की ओर से उस प्रकार का प्रश्न नहीं हो सक
ओर से उस प्रकार का प्रश्न नहीं हो सकता था। खरतर के इस प्रश्न का जो उत्तर दिया गया है उससे भी यही बात सिद्ध होती है क्यों कि उत्तर में यह कहा गया है कि हम तपागच्छी आप की (खरतर की) उक्त व्यवस्था का खण्डन इस लिए नहीं कर रहे हैं कि एक दिन दो तिथियों की आराधनायें नहीं हो सकतीं बल्कि इस लिये कर रहे हैं कि पूर्णिमा के दिन क्षीण चतुर्दशी का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है, और हम तपागच्छियों के मत में कोई दोष नहीं है क्यों कि हम तो चतुर्दशी के दिन अर्थात् पूर्णिमा-क्षय के दिन विद्यमान ही चतुर्दशी और पूर्णिमा की आराधना मानते हैं। ___अब यहाँ थोडा सोचने की बात यह है कि पूर्णिमा के क्षय-प्रसंग में आराधना का यह प्रकार जिस का डिण्डिम बजाते हुये श्रीसागरानन्दसूरि फिर रहे हैं, यदि उस काल के तपागच्छीय विद्वानों को सम्मत होता तो वे खरतर को यह भी मुहतोड उत्तर दे सकते थे कि हमारे मत में तो एक दिन दो तिथियों की आराधनायें मान्य नहीं है पर आपको ( खरतर को) तो दो तिथियों की आराधनायें एक दिन माननी ही पडेगी, जो न उचित ही है और न सम्भव ही। यह उत्तर न देने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह आराधना-प्रकार-उन्हें सम्मत नहीं था।
तत्त्वतरंगिणी में पञ्चम गाथा की व्याख्या करते समय चतुर्दशी के दिन क्षीण पूर्णिमा की सत्ता का समर्थन करते हुए कहा गया है कि इस विषय में कुछ युक्तियां कही जा चुकी हैं और कुछ युक्तियां क्षीण तिथि और वृद्ध तिथियों का सामान्य लक्षण बताते समय कही जायगी । इस कथन के अनुसार आगे चल कर सत्रहवीं गाथा के उत्तरार्ध के व्याख्यान-प्रसङ्ग में जो तिथि जिस दिन समाप्त होती है उस दिन को उस तिथि से युक्त मानना चाहियेइस रूप में उस युक्ति को कह कर उपसंहार किया गया है कि पूर्णिमाक्षय के दिन चतुर्दशी और पूर्णिमा दोनों समाप्त होती हैं अतः उस दिन चतुर्दशी के समान ही पूर्णिमा का भी अस्तित्व है। और समाप्ति के आधार पर अस्तित्व का समर्थन करना सर्वथा तर्कसङ्गत भी है कारण कि जिस दिन जिसका अस्तित्व ही न होगा उस दिन उसकी समाप्ति भी कैसे हो सकती है? तो इस प्रकार तिथि क्षय के दिन क्षीण तिथि की सत्ता में उस दिन उस तिथि की
समाप्ति को हेतु कहने से स्पष्ट सूचित होता है कि क्षय के दिन सूर्योदय-काल से ही क्षीण • 'तिथि के अस्तित्व की कल्पना निर्मूल है।
___ यहाँ भी श्रीसागरानन्दसूरि ने यह कल्पना खडी करने का प्रयास किया है कि " या या तिथिः, तत्ततिथित्वेन" यह न कह कर जो “या तिथिः, तत्तिथित्वेन" इस प्रकार एक ही एक यत् और तत् शब्द से युक्त वाक्य का प्रयोग किया गया है, उससे प्रतीत होता है कि एक दिन एक ही तिथि की समाप्ति और सत्ता होती है, पर यह कल्पना सङ्गत नहीं है क्यों कि ऐसा मानने पर उपसंहार में एक ही दिन दो तिथियों की समाप्ति बताना असंगत होगा और यदि दो तिथियों की समाप्ति होने पर भी एक ही की सत्ता मानेंगे तो समाप्त होने वाली जिस तिथि की सत्ता न मानेंगे उस में व्यभिचार होने से समाप्ति को सत्ता की साधकता जो प्रकृत ग्रन्थ से विवक्षित है वह न हो सकेगी। और यदि यह नियम मानेंगे कि जिस दिन जिस तिथि की समाप्ति तिथ्यन्तर की समाप्ति की पूर्ववर्तिनी न हो उस दिन वह तिथि मानी जानी चाहिये तो किसी दिन किसी भी तिथि की सत्ता सिद्ध न होगी क्यों कि प्रत्येक तिथि की समाप्ति उस के बाद वाली तिथि की समाप्ति की पूर्ववर्तिनी होती है । और यदि उस नियम का परिवर्तन इस रूप में करेंगे कि जिस दिन जिस तिथि की समाप्ति में उस दिन होने वाली तिथ्यन्तर की समाप्ति की पूर्ववर्तिता न हो उस दिन वह तिथि होगी तो जिन दिनों में
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