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________________ ૧૧૮ [ જૈન દૃષ્ટિએ તિથિદિન અને પર્વારાધન-સંગ્રહવિભાગ "तस्या अप्याराधनं जातमेव" इस वाक्य के "तस्याः" इस एकवचनान्त शब्द को लेकर श्रीसागरानन्दसूरि की यह कल्पना है कि इस वाक्य से पूर्णिमा-क्षय के दिन पूर्णिमा-मात्र की ही आराधना सूचित की गई है क्यों कि यदि चतुर्दशी तथा पूर्णिमा दोनों की आराधनायें सूचनीय होतीं तो "तस्याः" के बदले "तयोः" इस द्विवचनान्त शब्द का निर्देश किया जाना चाहिये था। पर यह कल्पना निर्मूल है, कारण कि "तस्याः " के आगे जो "अपि" शब्द है, उसी से द्विवचन के प्रयोग का कार्य पूरा हो जाता है, और यदि “तस्याः ” इस एकवचमान्त शर से पूर्णिमा मात्र की आराधना की सूचना मानी जायगी तो "अपि" शब्द का प्रयोग असंगत होगा तथा "चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन” इस वाक्य से चतुर्दशी के दिन अर्थात् पूर्णिमा-क्षय के दिन चतुर्दशी और पूर्णिमा दोनों के अस्तित्व का प्रदर्शन भी अनर्थक होगा। यहाँ यह शंका करना कि " तस्या अप्याराधनं जातमेव" इस वाक्य से दोनों तिथियों की आराधनावों की सूचना यदि करनी होती तो “ तस्या अपि” के बदले “तयोः” इस द्विवचनान्त एक शब्द का प्रयोग किया जाना ही उचित था, न कि “तस्याः, अपि” इन दो शब्दों का, ठीक नहीं है, कारण कि " नन्वेवं पौर्णमासीक्षये भवतामपि का गतिः” इस ग्रंथ से क्षीण पूर्णिमा की आराधना आप के मत में भी कैसे होगी-इस प्रश्न के उत्तर में "तस्या अप्याराधनं जातमेव" यह वाक्य आया है, अब यदि यहाँ “ तस्याः" के स्थान में “तयोः" शब्द का प्रयोग किया गया होता तो उत्तर प्रश्न के विरूप हो जाता। " तयोः” शब्द का प्रयोग तो तब उचित हो सकता था जब प्रश्न दोनों की आराधना के सम्बन्ध में होता, पर ऐसा तो है नहीं। अतः पूर्वोक्त प्रश्न के उत्तर में “ तस्या अपि" इस शब्द का प्रयोग ही उचित है। ____ यहाँ पर यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि पूर्णिमाक्षय के दिन यदि चतुर्दशी तथा पूर्णिमा दोनों का अस्तित्व प्रतिपादनीय न होता किन्तु क्षीण पूर्णिमा-मात्र का ही अस्तित्व प्रतिपादनीय होता तो “चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन" ऐसा न कहकर चतुर्दश्यां पौर्णमास्या एव विद्यमानत्वेन" यही स्पष्ट शब्दों में कहा गया होता, इसी प्रकार आगे भी “ यतस्त्रुटितत्वेन चतुर्दश्यां पौर्णमास्या वास्तव्येव स्थितिः” इस वाक्य के उत्तर में “पौर्णमास्या वास्तव्येव स्थितिः" के स्थान में “पौर्णमास्या एव वास्तवी स्थितिः” यही कहना चाहिये था। इसलिये उपर्युक्त चर्चावों के आधार पर यह सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि तत्त्वतरंगिणीकार को पूर्णिमाक्षय के दिन चतुर्दशी और पूर्णिमा दोनों की सत्ता मान्य है। पूर्णिमा के दिन चतुर्दशी की आराधना की खरतर-सम्मत व्यवस्था के तपागच्छीय विद्वानों की ओर से किये गये खण्डन का “तत्त्वतरंगिणी" की पञ्चम गाथा के व्याख्यान-प्रसंग में इस प्रकार उल्लेख प्राप्त होता है कि चतुर्दशी के क्षय के दिन उसकी आराधना न करके यदि पूर्णिमा के दिन उसकी आराधना की जायगी तो पूर्णिमा ही आराधित होगी न कि चतुर्दशी, और आराधनायें दोनों की ही कर्तव्य हैं, इस लिये पूर्णिमा के दिन क्षीण चतुर्दशी की आराधना करने की आप की (खरतर की) रीति युक्त नहीं है। खरतर ने इस खण्डन से तपागच्छीय विद्वानों का यह आशय समझा कि वह लोग एक दिन दो तिथियों की आराधना के अनौचित्य को दृष्टि में रखकर इस प्रकार का खण्डन कर रहे हैं, इस लिये उसने तपागच्छीय विद्वानों के प्रति प्रश्न किया कि पूर्णिमा के क्षय में आपके यहाँ क्या गति होगी ? अर्थात् आप के यहाँ भी तो उस अवस्था में एक ही दिन दो तिथियों की आराधना होती है, सो कैसे हो सकेगी? ___ खरतर के इस प्रश्न से ज्ञात होता है कि उस समय क्षीणपूर्णिमा की चतुर्दशी में और चतुर्दशी की त्रयोदशी में आराधना प्रचलित नहीं थी, क्यों कि ऐसा प्रचलन रहने पर खरतर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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