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________________ ११७ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહતિથિભાસ્કર ] दिन औदयिकी न होने पर भी चतुर्दशी मुख्य है क्यों कि यदि मुख्य न मानी जायगी तो उस दिन उस की आराधना ठीक उसी प्रकार न होगी जैसे दूसरे दिन सूर्योदय के बाद थोडे समय तक ही रहनेवाली चतुर्दशी के पहले दिन अधिक समय तक रहने पर भी मुख्यता न होने से उस दिन उस की आराधना नहीं होती। इस प्रकार पर्वतिथि के क्षय के दिन जब अपर्वतिथि की भी सत्ता और व्यवहार का लोप विद्वान् जैनाचार्यों को सह्य नहीं है तो क्षीण पर्व-तिथि के अव्यवहितपूर्व की पर्वतिथि के टिप्पणोदित काल में उसकी सत्ता और व्यवहार का लोप उन्हें कैसे सह्य हो सकता है ? और यही कारण है कि तत्त्वतरंगिणी में श्रीधर्मसागरजी ने पर्वानन्तर-पर्वतिथि के क्षयस्थल में पूर्व और उत्तर दोनों तिथियों की एक ही दिन आराधना होने में अपनी सम्मति व्यक्त की है। क्षीण चतुर्दशी की आराधना पूर्णिमा के दिन करनी चाहिये-इस खरतरमत का “ तपागच्छ" की ओर से खण्डन होने पर "खरतर” ने तपागच्छीय विचारकों से यह प्रश्न किया है कि आप के मत में भी पौर्णमासी का क्षय होने पर क्या गति होगी ? प्रश्न का अन्तर्निहित भाव यह जान पडता है कि पौर्णमासी के क्षय के दिन तो औदयिकी चतुर्दशी की ही आराधना होगी इसलिये एक दिन दो तिथियों की आराधना न हो सकने से पूर्णिमा की आराधना पूर्णिमाशून्य प्रतिपद् को ही करनी होगी, तो फिर जब पूर्णिमाशून्य प्रतिपद् को पूर्णिमा की आराधना हो सकती है तो चतुर्दशी-शून्य पूर्णिमा को क्षीण चतुर्दशी की आराधना क्यों नहीं हो सकती? और यदि पूर्णिमा के क्षय में चतुर्दशी के दिन ही चतुर्दशी तथा पूर्णिमा दोनों की आराधना मानेंगे तो चतुर्दशी के क्षय में पूर्णिमा के दिन दोनों की आराधना में क्या आपत्ति? इस का जो उत्तर तपागच्छीय विचारकों ने “चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन तस्या अप्याराधनं जातमेव" इस ग्रन्थ से दिया है वह यह है कि पौर्णमासी के क्षय के दिन चतुर्दशी और पौर्णमासी दोनों के विद्यमान रहने के कारण उस एक ही दिन दोनों की आराधनायें सम्पन्न हो जाती हैं, इस लिये हमारे मत में अगति नहीं है। इस उत्तर से तपागच्छीय विचारकों का यह भाव ज्ञात होता है कि वह खरतरमत का खण्डन इस आधार पर करते हैं कि पूर्णिमा के दिन क्षीण चतुर्दशी का लेश भर भी सम्बन्ध न होने के कारण उस दिन उसकी आराधना अयुक्त है, 'क्यों कि जिस दिन जिस तिथि का किञ्चित् भी सम्बन्ध न हो उस दिन उसकी आराधना मानने पर अव्यवस्था होगी, और "तपागच्छ" के पक्ष में क्षीण पूर्णिमा के दिन चतुर्दशी और पूर्णिमा की आराधना मानने में कोई दोष नहीं है क्यों कि उस दिन दोनों तिथियों का सम्बन्ध विद्यमान है। तपागच्छीय विचारकों के उक्त उत्तर का पाँचवीं गाथा की व्याख्या के प्रसंग में आदरपूर्वक उल्लेख करने से यह निस्संशय कहा जा सकता है कि तत्त्वतरंगिणीकार को एक दिन दो पर्वतिथियों की सत्ता, व्यवहार्यता और आराध्यता सम्मत है अतः पर्वानन्तर-पर्वतिथि के क्षयस्थल में पूर्व पर्वतिथि के पहले की अपर्वतिथि के क्षय की कल्पना जो श्रीसागरानन्दसूरि करते हैं वह उक्त तत्त्वतरंगिणी ग्रन्थ से विरुद्ध होने के नाते निन्द्य एवं त्याज्य है। "चतुर्दश्यां द्वयोरपि विद्यमानत्वेन" इस वाक्य में "टिप्पणानुसारेण" इस शब्द का अध्याहार कर उक्त वाक्य का अर्थान्तर करने की चेष्टा जो वह कहते हैं उसमें उनकी विपरीत वासना को छोड दूसरा कोई निमित्त नहीं है, तथा पूर्णिमा के क्षय के दिन पूर्णिमा मात्र की सत्ता इष्ट होने पर "टिप्पणानुसारेण" का अध्याहार कर टिप्पण की अपेक्षा चतुर्दशी का अस्तित्व बताने का कोई उपयोग भी नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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