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________________ ११९ [ જૈન દષ્ટિએ તિથિદિન અને પરાધન-સંગ્રહવિભાગ चौथी गाथा के व्याख्यान प्रसंग में पहले “ तत्र त्रयोदशीति व्यपदेशस्याप्यसम्भवात् , किन्तु प्रायश्चित्तादिविधौ चतुर्दश्येवेति व्यपदिश्यमानत्वात्" इस ग्रन्थ से यह कहा गया है कि “ सूर्योदय के समय त्रयोदशी से और अन्य समयों में चतुर्दशी से युक्त दिन को त्रयोदशी का व्यवहार असम्भव है किन्तु चतुर्दशी काही व्यवहार युक्त है और उसी चर्चा में आगे चल कर "अवरविद्ध अवरावि" इस ग्रन्थ से यह कहा गया है कि उस दिन चतुर्दशी के तुल्य त्रयोदशी का व्यवहार सम्भव है। इन दोनों कथनों में “ खरतर" की ओर से विरोध-प्रदर्शन किये जाने पर "प्रायश्चित्तादिविधावित्युक्तत्वात् , गौणमुख्यभेदात् मुख्यतया चतुर्दश्या एव व्यपदेशो युक्त इत्यभिप्रायेणोक्तत्वाद् वा” इस वाक्य से यह उत्तर दिया गया है कि सूर्योदय के समय त्रयोदशी से और अन्य समयों में चतुर्दशी से युक्त दिन को चतुर्दशी का ही व्यवहार होने की जो बात पहले कही गई है उसका आशय यही है कि धर्मसम्बन्धी कार्यों में चतुर्दशी का ही व्यवहार करना चाहिये अथवा उस दिन त्रयोदशी के गौण होने से मुख्यभाव से चतुर्दशी का ही व्यवहार करना चाहिये न कि उसका यह आशय है कि अन्य कार्यों में भी तथा गौण रूप से भी त्रयोदशी का व्यवहार नहीं करना चाहिये। इस उत्तर-ग्रन्थ को थोडी सतर्क दृष्टि से देखने पर स्पष्ट ही मालूम पड जाता है कि तत्त्वतरंगिणीकार को क्षीण चतुर्दशी के दिन त्रयोदशी और चतुर्दशी दोनों के अस्तित्व और व्यवहार सम्मत हैं, क्यों कि यदि उस दिन अकेली चतुर्दशी की ही सत्ता और व्यवहार में उनकी सम्मति होती तो बाद में कहे हुये "अवरावि" इस शब्द का “ अपराऽपि" क्षीणतिथि भी-यह अर्थ छोड कर " अपरा एव" क्षीणतिथि ही-ऐसा अर्थ करके अपनी पूर्वोक्त बात की ही अविकल रूप से रक्षा उन्हें करनी चाहिये थी, परन्तु वह तो अपनी पूर्व उक्ति का ही तात्पर्यान्तर वर्णन करते हुये अपनी पहली ही बात पर अदृढ और बाद की उक्ति को ज्यों की त्यों रखते हुये अपनी पिछली बात पर ही स्थिर रहने और उसी की रक्षा करने की मुद्रा दिखाते प्रतीत होते हैं, जिसका निर्विवाद अर्थ यह होता है कि क्षीण चतुर्दशी के दिन उन्हें त्रयोदशी और चतुर्दशी दोनों के ही अस्तित्व और व्यवहार मान्य हैं। श्रीसागरानन्दसूरि ने “ गौणमुख्यभेदात् मुख्यतया चतुर्दश्या एघ व्यपदेशो युक्त इत्यभिप्रायकत्वाद्वा" इस वाक्य में आये हुये "मुख्यतया" शब्द की तृतीया को हेतु का निर्देशक मान कर यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि तत्त्वतरंगिणीकार मुख्यत्व के आधार से क्षीण चतुदशी के दिन केवल चतुर्दशी के ही व्यवहार का औचित्य सिद्ध करना चाहते है, पर वह यह नहीं सोचते कि उक्त वाक्य चतुर्दशी-मात्र की व्यवहार्यता का समर्थन करने के उद्देश्य से नहीं आया है बल्कि उस आशय की पूर्व उक्ति में संकोच उपस्थित करते हुये बाद में कहे गये त्रयोदशी और चतुर्दशी दोनों के व्यवहार के समर्थन में आया है । इस लिये “ मुख्यतया चतुर्दश्या एव व्यपदेशो युक्तः" इस ग्रन्थ का यह अर्थ करना उचित है कि क्षीण चतुर्दशी के दिन मुख्यता का व्यवहार चतुर्दशी में ही करना युक्त है, अर्थात् “मुख्यतया" की तृतीया हेतु का निर्देशक नहीं अपि तु प्रकार का निर्देशक है । इस पर यदि कोई शंका करे कि जब उस दिन त्रयोदशी और चतुर्दशी दोनों का ही अस्तित्व है तो चतुर्दशी की ही मुख्यता क्यों ? प्रत्युत औयिकी होने से त्रयोदशी की ही मुख्यता माननी चाहिये, तो उसका उत्तर यह है कि चतुर्दशी पर्व-तिथि है तथा त्रयोदशी सामान्यतिथि है, और सामान्य-तिथि की अपेक्षा पर्वतिथि स्वभावतः प्रधान होती है । हाँ, उस दिन वह औदयिकी नहीं है किन्तु त्रयोदशी औद यिकी है अतः उक्त प्रकार की शंका सम्भव है, इस लिये यह बता देना आवश्यक है कि उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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